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भाजपा की जीत ने तोड़े मिथक

अनुपम त्रिवेदी राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक हाल ही में हुए चुनावों में भाजपा की अविश्वसनीय जीत ने न केवल कई रिकाॅर्ड तोड़े, बल्कि कई मिथकों को भी तोड़ दिया. उत्तर प्रदेश विधानसभा का यह चुनाव सही मायनों में बदलाव का चुनाव कहा जा सकता है. लगभग हर विशेषज्ञ मानता है कि इस बार पूरे प्रदेश में जाति […]

अनुपम त्रिवेदी
राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक
हाल ही में हुए चुनावों में भाजपा की अविश्वसनीय जीत ने न केवल कई रिकाॅर्ड तोड़े, बल्कि कई मिथकों को भी तोड़ दिया. उत्तर प्रदेश विधानसभा का यह चुनाव सही मायनों में बदलाव का चुनाव कहा जा सकता है. लगभग हर विशेषज्ञ मानता है कि इस बार पूरे प्रदेश में जाति और धर्म से ऊपर उठ कर विकास के नाम पर वोट पड़े और मतदाताओं ने पुराने मिथकों को नकार दिया.
सबसे पहला मिथक जो टूटा, वह है मुसलिम वोट बैंक का. लंबे समय से उत्तर भारत की राजनीति में मुसलमानों को केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है. नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलिम वोट बैंक का जो मिथक पैदा हुआ, उसे मुलायम सिंह और मायावती जैसे नेताओं ने जम कर भुनाया. ‘सांप्रदायिक शक्तिओं’ को दूर रखने के नाम पर हर तरह के कुशासन, भ्रष्टाचार से मतदाताओं का ध्यान हटाने का प्रयास किया गया.
हाल के चुनावों में भी कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी से हाथ इसीलिए मिलाया कि मुसलिम वोट बैंक न बिखरे और उनकी नैया डूबने से बच जाये. परंतु, ध्रुवीकरण के प्रयासों और अपने को सेक्युलर कहनेवाले मायावती जैसे नेताओं के मुसलमानों को एकमुश्त भाजपा के खिलाफ वोट देने के खुले आह्वान के बावजूद, भाजपा ने उत्तर प्रदेश के लगभग 100 मुसलिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों (जिनमें 73 पर मुसलिम आबादी 30 प्रतिशत से ज्यादा है) में से 75 पर विजय पायी. लेकिन, बिना मुसलिम मतों के ऐसा संभव नहीं लगता. प्रदेश की 20 प्रतिशत आबादी के मत के बिना तीन-चौथाई से ज्यादा सीटें जीतना तथ्यात्मक रूप से लगभग असंभव है. निश्चित रूप से बड़ी संख्या में भाजपा को मुसलिम वोट मिले हैं. इससे यह मिथक भी टूटता है कि मुसलमान भाजपा को वोट नहीं देते. उत्तर प्रदेश के नतीजों पर टिपण्णी करते हुए अनेक लेख प्रकाशित हुए, जिनका सार है कि मुसलमान अब समझदार हो गये हैं और वे किसी मौलाना या कौम के ठेकेदार के हाथों नहीं बिकते. वे विकास चाहते हैं और वह भी मुख्यधारा में जुड़ कर. यह एक अत्यंत सार्थक खबर है.
दूसरा मिथक था दलित वोट बैंक का, जिस पर बहन जी ने एकाधिकार कर रखा था. दलितों पर तोहमत थी कि चाहे कुछ हो, वे मायावती के सिवाय किसी को वोट नहीं देंगे. पर, इस बार न सिर्फ उन्होंने यह मिथक तोड़ा, बल्कि मायावती का गुरूर भी तोड़ दिया. उत्तर प्रदेश की 85 सुरक्षित सीटों में से एनडीए को 75 सीटें मिलीं (69 भाजपा को और बाकी 3-3 सहयोगी दलों- अपना दल और सुहेलदेव समाज पार्टी को). कुल सुरक्षित सीटों में से मायावती को मात्र दो सीट पर ही जीत हासिल हुई. दलित बहुल बुंदेलखंड में, जिसे मायावती के दलित समर्थकों का गढ़ माना जाने लगा था, बसपा को कोई सीट नहीं मिली, वहीं भाजपा 19 में से सभी 19 सीटें जीत ले गयी.
एकमुश्त दलित वोटों का मिथक सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही नहीं टूटा. पंजाब में भी दलितों ने सभी दलों को वोट दिये. पंजाब के दोआबा में, जहां दलित 40 प्रतिशत से ज्यादा हैं, कांग्रेस को 23 में से 14 सीटें मिलीं.
तीसरा मिथक जो टूटा, वह था यादवों के उस गढ़ का, जिसे लंबे समय से कोई नहीं तोड़ पाया था. उत्तर प्रदेश के गंगा-जमुना दोआब क्षेत्र में फैले मैनपुरी, इटावा, कन्नौज आदि जिलों में फैली 60 विधानसभा सीटों पर यादव परिवार का एकछत्र प्रभाव था. वहां भी भाजपा ने 41 सीटें जीत कर यादवों की मजबूत पकड़ के मिथक को तोड़ दिया है.
चौथा मिथक था उत्तर प्रदेश में विकास के मुद्दा न होने का. प्रदेश की युवा जनता ने इसको सिरे से पलट दिया. काम और कारनामे की जंग जातिवाद पर पूरी तरह से हावी हो गयी.
बेरोजगारी से पीड़ित युवाओं ने अखिलेश यादव के लैपटॉप, मोबाइल और एक किलो घी की भीख के बनिस्बत मोदी के विकास के वायदों को ज्यादा तरजीह दी.
इसी के साथ पांचवां मिथक टूटा मुफ्तखोरी से वोट लेने का. तमिलनाडु में जयललिता द्वारा शुरू किया वोट के लिए मिक्सी-टीवी बांटने का सिलसिला उत्तर प्रदेश में मुख्य राजनीतिक मुद्दा बन गया था. पूर्व मुख्यमंत्री और उनके सलाहकारों ने मान लिया कि युवाओं के वोट तो खैरात बांटने से ही मिल जायेंगे. इसीलिए बजाय रोजगार सृजन के, बेरोजगारी भत्ते और मुफ्त लैपटॉप, मोबाइल फोन तथा घी बांटने के नाम पर वोट मांगे गये, जिसे मतदाताओं ने सिरे से नकार दिया.
जहां पुराने कई मिथक टूटे, वहीं नये मिथकों का भी शमन हुआ है. पूरा मीडिया और विपक्ष इस बात को माने बैठा था कि नोटबंदी पर नाराजगी का मतदान पर व्यापक असर होगा और भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा, पर हुआ इसके उलट. नोटबंदी तो कहीं मुद्दा तक नहीं बन पाया.
एक और बहुत बड़ा मिथक जो टूटा, वह था ‘एग्जिट पोल’ का. एक को छोड़ सब गलत साबित हुए. अपने आप को ‘एक्सपर्ट’ माननेवाले अनेक राजनीतिक पंडित- जिनमें कई नामी-गिरामी पत्रकार और संपादक थे, चुनाव नतीजों के बाद बगलें झांकते नजर आये. इस पर सबसे बड़ी टिपण्णी आयी वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह की, जिन्होंने अपने काॅलम में लिखा- ‘परिणाम हमारे सामने हैं, जो साबित करते हैं कि देश बदल गया है, मतदाता बदल गये हैं, लेकिन हम राजनीतिक पंडित अब भी उस पुराने दौर में जी रहे हैं, जिसमें सारा खेल था जातिवाद और धर्म-मजहब का. सो, शर्म आनी चाहिए हमें.’
भले ही इतने मिथक टूट गये हों, पर अभी भी एक बड़ा मिथक टूटना बाकी है और वह है रिकाॅर्ड तोड़ बहुमत के बाद सरकारों के अहंकारी हो जाने का. उत्तर प्रदेश में भी मतदाता कयास लगा रहे हैं कि मोदी की भाजपा अब कहीं अहंकार में न डूब जाये. पर, जनता के इस मूड को भी प्रधानमंत्री मोदी ने बखूबी भांप लिया. 12 मार्च को पार्टी मुख्यालय में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने इस अहंकार से बचने का आह्वान किया. उन्होंने उद्धरण दिया उस वृक्ष का, जिस वृक्ष के जितने ज्यादा फल हों, वह उतना अधिक झुकता है.आशा है भाजपा की उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में आयी पूर्ण बहुमत की सरकारें इस प्रचलित मिथक को भी तोड़ देंगी.

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