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भोजपुरी सिनेमा का भविष्य
नितिन चंद्रा फिल्मकार भोजपुरी सिनेमा को लेकर कई तरह की चिंताएं हैं. अब जरूरी है कि आगे की राह के बारे में गंभीरता से विचार किया जाये. मेरा मानना है कि सिनेमाघरों के जरिये भोजपुरी सिनेमा का नया दौर नहीं लाया जा सकता. इसके लिए विषय-वस्तु, माध्यम, चेहरे और दर्शक सब बदलने पड़ेंगे. इसमें बहुत […]
नितिन चंद्रा
फिल्मकार
भोजपुरी सिनेमा को लेकर कई तरह की चिंताएं हैं. अब जरूरी है कि आगे की राह के बारे में गंभीरता से विचार किया जाये. मेरा मानना है कि सिनेमाघरों के जरिये भोजपुरी सिनेमा का नया दौर नहीं लाया जा सकता. इसके लिए विषय-वस्तु, माध्यम, चेहरे और दर्शक सब बदलने पड़ेंगे. इसमें बहुत परेशानी भी नहीं है. आज भोजपुरी सिनेमा की पहुंच सिर्फ 10-15 फीसदी लोगों तक ही है. भोजपुरी बोलने-समझनेवाले बड़े वर्ग को कुछ अच्छे का इंतजार है.
आखिर सिनेमा की जरूरत क्यों है? साहित्य व्यक्ति को समाज, उसके इतिहास, सच-झूठ, नैतिकता या मौलिकता से जोड़ कर उसके मन-मस्तिष्क को प्रभावित करता है. साहित्य हमारे भविष्य-निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. अच्छा साहित्य हमें अच्छा इंसान बनाता है.
सिनेमा भी यही करता है. दोनों ही समाज का आईना हैं. जिस समाज का साहित्य जितना मजबूत रहा है, उसका सिनेमा भी उतना मजबूत हुआ है. मेरी पहली फिल्म ‘देसवा’ कभी रिलीज नहीं हो पायी. राष्ट्रीय पुरस्कार में योग्यता श्रेणी में आने के लिए हमने इसे बिहार के सात सिनेमाघरों में प्रदर्शित किया था. चार साल बाद मैंने मैथिली फिल्म ‘मिथिला मखान’ बनायी, जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. बिहार को मिलनेवाला यह पहला पुरस्कार था. यह भी अभी रिलीज नहीं हो सकी है. इन फिल्मों के अनुभवों ने आगे के रोडमैप के बारे में एक समझ दी.
अस्सी फीसदी भोजपुरी समझने और बोलनेवालों तक पहुंचने का एक ही माध्यम है- इंटरनेट. भोजपुरी के दर्शक जब तक मध्य वर्ग के शिक्षित लोग नहीं होंगे, तब तक बदलाव नहीं आयेगा. भोजपुरी के प्रति संवेदना रखनेवाला समाज ही इसके साहित्य व सिनेमा को संभाल सकेगा. इसलिए भोजपुरी की पढ़ाई की व्यवस्था भी यूपी-बिहार में होनी चाहिए.
भारत में इंटरनेट के जरिये दिखाये जानेवाले कंटेंट बनाने और प्रदर्शित करने पर कई कंपनियां बड़े स्तर पर निवेश कर रही हैं. आज स्मार्टफोन ही टीवी है और धीरे-धीरे सिनेमाघर बनता जा रहा है. मुंबई में मैं ऐसे कई परिवारों को जानता हूं, जिनके यहां टीवी नहीं है.
टीवी चैनलों के अपने एप हैं. इंटरनेट पर चल रहे चैनलों ने लोगों के मनोरंजन का ढांचा बदल दिया है. यूट्यूब पर अनेकों भोजपुरी फिल्में मौजूद हैं, जो सिनेमाघरों में दर्शकों का मानसिक और बौद्धिक शोषण करने के बाद इंटरनेट पर मुफ्त में दिखा कर विज्ञापनों से पैसा कमाती हैं. यहां भी वही दर्शक हैं. लेकिन, इंटरनेट लोकतांत्रिक माध्यम है. यह ऐसा सिनेमाघर है, जहां हजारों फिल्में लाखों लोग एक साथ देख सकते हैं.
हमने भी एक इंटरनेट चैनल शुरू किया है. हमारा पहला वीडियो छठ पूजा पर था, जिसे देश-विदेश में बड़ी संख्या में लोगों ने देखा और सराहा. उसके बाद हमने दूसरा वीडियो डाला. इन दोनों वीडियो की प्रशंसा से यह बात साबित होती है कि लोग यह स्वीकार कर रहे हैं कि भोजपुरी में भी अच्छा काम हो सकता है तथा उसका स्वागत भी हो रहा है. इस महीने हम एक मैथिली लघु फिल्म भी रिलीज करेंगे.
भोजपुरी में अच्छी फिल्में के लिए प्रयत्नशील लोगों को लघु फिल्में इंटरनेट पर रिलीज कर एक दर्शक वर्ग खड़ा करना चाहिए. यह आसान तो नहीं है, लेकिन इसमें लागत कम है. अभी की स्थिति में पैसा कमाने की बात सोचने से काम आगे नहीं बढ़ेगा. अभी पथरीली जमीन को खोद कर पोखर बनाने की बात हो रही है. अभी से मछलियों की कीमत लगाना तर्कसंगत नहीं होगा. इसलिए लगातार कंटेंट बनाते रहना जरूरी है. देखनेवालों की संख्या बढ़ेगी, तो आपको सिनेमाघर जाने की जद्दोजहद नहीं करनी पड़ेगी. तब आमदनी का रास्ता भी खुलेगा.
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