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मन लागा यार फकीरी में

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार नोटबंदी ने अच्छे-अच्छों को फकीर बना कर छोड़ दिया है, तो बहुतों को फकीर बनने के लिए प्रेरित भी किया है. इस तरह नोटबंदी की बदौलत फकीरों के भी दो वर्ग उभर आये हैं- एक तो वे फकीर, जो मूलत: फकीर नहीं थे, पर अपनी ही मेहनत की कमाई बैंक […]

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

नोटबंदी ने अच्छे-अच्छों को फकीर बना कर छोड़ दिया है, तो बहुतों को फकीर बनने के लिए प्रेरित भी किया है. इस तरह नोटबंदी की बदौलत फकीरों के भी दो वर्ग उभर आये हैं- एक तो वे फकीर, जो मूलत: फकीर नहीं थे, पर अपनी ही मेहनत की कमाई बैंक या एटीएम से निकालने में जिन्हें हद से ज्यादा पापड़ बेलने पड़ गये, और इतने पापड़ बेलने के बाद भी जिनमें से बहुतों को कुछ नहीं मिला, यहां तक कि पापड़ भी नहीं. मिला तो महज फकीर या भिखारी होने का ‘रुतबा’, जो बैंककर्मियों और पुलिसवालों की नजर और कार्रवाई में रह-रह कर झलकता रहा.

लेकिन, जैसा कि कबीर ने कहा है, सरकार द्वारा रोज नियम बदल-बदल कर यह समझाने के बावजूद कि विमुद्रीकरण से तुम्हारी मुद्रा रूपी माया मरी नहीं है, आज नहीं तो कल और कल नहीं तो परसों और परसों नहीं तो पचास दिन बाद और पचास दिन बाद नहीं तो छह-आठ महीने में, यानी कभी न कभी मिल जायेगी, आदमी का मन नहीं मरा या माना और वह अगले दिन फिर से ब्रह्म मुहूर्त में जाग उठने की शास्त्रोक्त महिमा का स्मरण कर, भाेर में ही उठ कर एटीएम लाइन में लगने जाता रहा.

वहां खड़े-खड़े उनमें से कइयों का शरीर मर गया, लेकिन आशा-तृष्णा नहीं मरी और परलोक जाकर भी वे एटीएम की लाइन ही ढूंढ़ते रहे हों, तो कोई ताज्जुब नहीं- माया मुई न मन मुआ, मरि-मरि गया सरीर…

वैसे नोटबंदी ने लोगों से एक अवसर छीना, तो दूसरे कई अवसर पैदा भी किये. रोजगार गवां कर ज्यादातर मजदूर अपने गांव चले गये, जहां उनमें से कुछ ने अपने खाली समय का उपयोग अपनी नसबंदी करवा कर न केवल अतीत में देश की जनसंख्या बढ़ाने में भरपूर योगदान दे चुकने के बाद अब उसकी रोकथाम करने में अपना विनम्र योगदान ही दिया, बल्कि इस उपलक्ष्य में सरकार से कुछ मुद्रा भी कमा ली.

दो-चार दिन में वह कमाई खत्म हो जाने के बाद वे पुन: अस्पताल जाकर यह दरियाफ्त करते भी पाये गये कि जिस तरह बार-बार रक्तदान किया जा सकता है, वैसे ही क्या बार-बार नसबंदी नहीं कराई जा सकती? कमाई के मामले में कुछ बैंककर्मी भी पीछे नहीं रहे, जिन्होंने कमीशन में मिली सोने की ईंट का जवाब पत्थर से नहीं, बल्कि नये नोटों की गड्डियों से देकर एक नया मुहावरा गढ़ा.

अपने लिए तो सभी जीते हैं, मनुष्य वह है जो दूसरों के लिए जीये- इस सीख पर चलते हुए कुछ परोपकारी लोग कमीशन जैसी मामूली चीज के बदले दूसरों का कालाधन भी अपने कालेधन के साथ ही सफेद करवा देने के लिए आगे आ गये. बैंकों और एटीएम की लाइनों में लगे लोगों के दुपहिया वाहन चुरा कर वाहन-चोरों ने भी नोटबंदी के कारण शिथिल हो गयी अपनी अर्थव्यवस्था के साथ देश की अर्थव्यवस्था को भी गति देने की कोशिश की. लाइन में मरनेवालों की यत्किंचित क्षतिपूर्ति के तौर पर अपनी खुद की प्रसूति के लिए पैसे निकालने हेतु घंटों लाइन में खड़ी दूर गांव से आयी एक ग्रामीण महिला का लाइन में लगे-लगे ही बच्चा भी हो गया. इस गौरवशाली ऐतिहासिक प्रसूति के लिए उसने प्रधानमंत्री को कितने आशीष दिये होंगे, सोचा जा सकता है.

जनता के इस अटूट समर्थन से गद्गद हो प्रधानमंत्री ने भी घोषित कर दिया कि वे तो फकीर हैं, जब चाहे चल देंगे. यह देख सभी देवी-देवताओं यानी अमीर-उमरावों का हृदय-कमल खिल उठा और वे भी उन्हीं जैसे फकीर बनने के लिए लालायित हो उठे. उनके साथ-साथ वे सब भी कबीर की तरह गा उठे- मन लागा यार फकीरी में! जो सुख होत नोटबंदी में, सो सुख नाहिं वजीरी में!

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