हमारे समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार है. परिवार में रिश्ते संवेदना से जुड़े होते हैं. लेकिन कभी-कभार आक्रोश में संवेदना खो देने की वजह से पूरे परिवार पर आफत आ जाती है. सास-बहू, पति-पत्नी, दो पड़ोसियों आदि के झगड़ों में कभी-कभी बच्चों की जिंदगी दावं पर लग जाती है. ऐसा ही एक वाकया जसीडीह थाना क्षेत्र के खैरवा गांव में हुआ है. कहा जा रहा है कि सास-बहू के झगड़े के बाद बहू अपने तीन बच्चों समेत कुएं में कूद गयी.
घटना में तीनों बच्चों की मौत हो गयी, जबकि उसकी मां को बचा लिया गया है. आर्थिक तंगी भी ऐसी घटनाओं की एक वजह होती है. बच्चों के झगड़े में बड़े लोगों का शामिल हो जाना भी एक बड़ा कारण है, जिसकी वजह से अप्रिय घटनाएं घट जाती हैं. समाज और परिवार में एक-दूसरे के साथ सह- अस्तित्व बरकरार रखने और मिल कर काम करने की भावना कभी-कभी आक्रोश और आवेग में इतनी कमजोर हो जाती है कि वह पारिवारिक व सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देती है. परिणामस्वरूप ऐसी अप्रिय घटनाएं घट जाती हैं जिनका खमियाजा किसी परिवार या समाज को सालों तक भुगतना पड़ता है.
जाहिर है इस दिशा में सरकार और शासन-प्रशासन को भी अपने स्तर से विचार करना चाहिए. आखिर ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए किस स्तर की जागरूकता की जरूरत है. भारत एक लोक-कल्याणकारी गणराज्य है और यहां गरीबी, भुखमरी या अभाव की वजह से कोई सामाजिक या पारिवारिक हादसा घटित न हो जाये, इस दिशा में जागरूक नागरिकों तथा स्वयंसेवी संस्थाओं को मिल कर पहल करनी चाहिए. सरकार तथा शासन-प्रशासन तक यह बात पहुंचानी चाहिए, उस परिवार को संभालने का दायित्व शासन-प्रशासन के अलावा समाज और बुद्धिजीवियों का भी है.
आज हम सामाजिक सरोकार से दूर होते जा रहे हैं. क्या हमारी संवेदना मर चुकी है? यदि हां, तो यह नैतिक अपराध है. ऐसी संवेदनशील घटनाओं पर तटस्थ रह कर मजा नहीं लेना चाहिए. कई दफा हमारी कोशिश से ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है. भौतिकवादी युग में हमारी जरूरतें बढ़ गयी हैं. इसकी वजह से असंतोष बढ़ रहा है. ऐसी घटनाएं इसी का दुष्परिणाम है.