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मारबो रे सुगवा धनुख से

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार दीवाली भले ही बीत गयी, लेकिन पर्वों का सिलसिला जारी है. बिहार में तो दीवाली के अगले दिन से ही छठ-पूजा की तैयारी शुरू हो जाती है. बिहार का मतलब यहां सिर्फ बिहार से नहीं है, बल्कि बिहार के बाहर भी जहां-जहां बिहारी भाई लोग रहते हैं, वहां-वहां सब जगह […]

डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
दीवाली भले ही बीत गयी, लेकिन पर्वों का सिलसिला जारी है. बिहार में तो दीवाली के अगले दिन से ही छठ-पूजा की तैयारी शुरू हो जाती है. बिहार का मतलब यहां सिर्फ बिहार से नहीं है, बल्कि बिहार के बाहर भी जहां-जहां बिहारी भाई लोग रहते हैं, वहां-वहां सब जगह एक ठो बिहार पाया जाता है.
छठ-पूजा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह कार्तिक या चैत महीने के छठे दिन ही मनाया जाता है और इसमें सूर्य देवता को अर्घ्य देने के साथ उनकी बहन छठी मैया की पूजा की जाती है. छठी मैया नाम से ऐसा लगता है, जैसे छठी से पहले पांच मैया और भी होती हों, लेकिन ऐसा है नहीं. उस छठी का भी इससे कोई ताल्लुक नहीं, जिसका दूध लोगों को जब-तब याद आता रहता है.
छठ-पूजा की पूरी प्रक्रिया में कदम-कदम पर कोई न कोई संदेश छिपा है. जैसे पहले दिन की पूजा ‘नहाय खाय’ को ही लें, जिसका आशय है कि कम-से-कम आज तो नहा कर ही खाना. बाकी दिनों में आप खाकर भी नहा सकते हैं और नहीं भी नहाये, तो भी कौन देख रहा है, लेकिन आज के दिन नहा कर खाने से ही पूजा स्वीकार होगी. इस तरह आदमी साल में कम-से-कम एक दिन तो नहा ही लेता है और नहाने के कितने फायदे हैं, खासकर लंबे समय के बाद, बताने की जरूरत नहीं. दूसरे दिन पूरा दिन उपवास रखने के बाद गन्ने के रस की खीर और रोटी का प्रसाद बनाया-खाया जाता है, जिसे ‘खरना’ कहते हैं.
उसे खाने के बाद आदमी ‘खर ना’ रहता. तीसरे दिन उपवास के बाद शाम को ठेकुआ, कचवनिया, मौसमी फल-सब्जियों के सूप का अर्घ्य बांस की टोकरी में सजा कर लोग मेले की शक्ल में घाट पर ले जाकर डूबते सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य देते हैं और छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा करते हैं.
डूबते सूरज को अर्घ्य देने के पीछे ज्ञानियों का यह बोध रहा हो सकता है कि सूरज, सूरज है, और जो सूरज अभी डूब रहा है, वह कल फिर उगनेवाला है, इसलिए उसकी भी पूजा जरूरी है. यहां तो सुबह उगनेवाला सूरज शाम को डूब जाता है और शाम को डूबनेवाला सूरज सुबह उग जाता है. लिहाजा सुबह के सूरज का घमंड भी अनुचित है और डूबते सूरज की निराशा भी, और जनता को तो इससे दिग्भ्रमित होना ही नहीं चाहिए.
अलबत्ता इस दौरान पक्षियों की खैर नहीं रहती, खासकर सुग्गे की. घर में उगे सेब, केले आदि फलों को सूर्य को चढ़ाने से पहले ही सुग्गे चोंच मार कर जूठे न कर जायें, इसका खास खयाल रखा जाता है.
एक लोकगीत में एक महिला सुग्गे को संबोधित करते हुए कहती है कि- ओ सुग्गे, अगर किसी ने मुझे यह खबर दी कि तुमने हमारे यहां भरपूर मात्रा में पैदा होनेवाले फलों पर मंडराते हुए उन्हें आदित्य को अर्पित करने से पहले ही जूठा कर दिया है, तो मैं तुम्हें धनुष से ऐसा मारूंगी कि तुम मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़ोगे- मारबो रे सुगवा धनुख से, सुगा गिरे मुरछाय! यह देख तुम्हारी सुग्गी वियोग से रोती फिरेगी और आदित्य भी उसमें कोई मदद नहीं कर पायेंगे- ऊ जे सुगिनी जे रोवेले वियोग से आदित होईं ना सहाय…
चौथे दिन उगते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद व्रत खोला जाता है और दुनिया फिर उसी पुराने ढर्रे पर चलने लगती है. सभी जातियों के लोग एक-साथ एक जगह पूजा में शामिल होने के बाद लौट कर फिर से जाति-प्रथा को मजबूत करने में लग जाते हैं. मैं सोचता हूं कि काश, किसी लोकगीत में इन जातिवादी ‘सुग्गों’ को भी धनुख से मारने की चेतावनी दी गयी होती!

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