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शब्द-युद्ध से उठते सवाल
उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार उड़ी आतंकी हमले के बाद हमारे राजनेताओं और सामरिक योजनाकारों द्वारा एक बार फिर वही बातें दुहराई जा रही हैं, जो हर हमले के बाद कही जाती रही है- ‘एक के बदले दस सिर लायेंगे या कि एक दांत के बदले पूरा जबड़ा निकाल लेंगे.’ हमारे नेताओं के ऐसे बयानों के बाद […]
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
उड़ी आतंकी हमले के बाद हमारे राजनेताओं और सामरिक योजनाकारों द्वारा एक बार फिर वही बातें दुहराई जा रही हैं, जो हर हमले के बाद कही जाती रही है- ‘एक के बदले दस सिर लायेंगे या कि एक दांत के बदले पूरा जबड़ा निकाल लेंगे.’ हमारे नेताओं के ऐसे बयानों के बाद सोशल मीडिया और विजुअल मीडिया, खासकर निजी चैनलों के बड़े हिस्से में युद्ध या सीमित हवाई हमले से दुश्मन को मजा चखाने का आह्वान हो रहा है. ‘अब तक जिसका खून न खौला, खून नहीं वो पानी है’ या ‘इस बार आर-पार हो जाना चाहिए’ जैसे उत्तेजक नारे भी लग रहे हैं. इस पर हमें संजीदा होकर विचार करने की जरूरत है. क्या युद्ध या सीमित युद्ध भारत-पाक के बीच बीते 69 वर्षों से जारी मनमुटाव, टकराव या युद्धोन्माद को हमेशा के लिए खत्म कर देगा?
भारत-पाक के बीच अब तक घोषित-अघोषित चार युद्ध हो चुके हैं. इनमें दोनों तरफ से भारी जान-माल की क्षति हुई है. करगिल युद्ध को छोड़ कर बाकी तीन युद्ध तो ऐसे दौर में हुए, जब दोनों देश परमाणु-क्षमता विहीन देश थे. लेकिन, अब दोनों देश परमाणु हथियारों से लैस हैं.
ऐसे में सवाल यह है कि अब तक के चार युद्ध अगर मसलों को हल नहीं कर सके, तो क्या गारंटी है कि पाचवां युद्ध भारत-पाक के तमाम मसलों को हल कर देगा? एक पत्रकार के रूप में मैंने सन् 1999 का ‘करगिल-युद्ध’ कवर किया था- मैंने द्रास, करगिल, बटालिक और मश्को के मोर्चे को अपनी आंखों से देखा है. इसलिए मेरी बात पर यकीन कीजिए कि युद्ध एक बरबादी के सिवा कुछ नहीं लायेगा- जान-माल और अर्थव्यवस्था की भारी बरबादी. आबाद होंगे, दोनों देशों को हथियार बेचनेवाले ताकतवर देश. अगर किसी पागलपन में परमाणु बम का इस्तेमाल हुआ, तो समझिये महाविनाश. सिर्फ एक बार नहीं, दशकों तक जारी रहनेवाला महाविनाश. और ऐसी भीषण लड़ाई तीसरे महायुद्ध का कारण भी बन सकती है. ऐसे में भारत-पाक के लंबित विवादों, दशकों से जारी झगड़ों और बार-बार के हिंसक टकरावों का हल युद्ध नहीं हो सकता! फिर हल क्या है?
भारत-पाक के बीच सबसे बड़ा मसला कश्मीर है. ज्यादातर लोग अब यह बात भी समझ गये हैं कि यह एक राजनीतिक मसला है, इसका समाधान भी राजनीतिक पहल से ही संभव होगा. हमारी सेना के शीर्ष कमांडर भी यह बात कहने लगे हैं. पिछले महीने श्रीनगर स्थित सेना की उत्तरी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुड्डा ने कहा था- ‘कश्मीर एक राजनीतिक मसला है, यह कोई कानून-व्यवस्था का मसला नहीं है, इसलिए इसका समाधान भी राजनीतिक स्तर पर ही होना है.’ पर विडंबना है कि हमारे सत्ता-संचालक अपने एक शीर्ष-अनुभवी सैन्य-कमांडर की बात भी नहीं सुन रहे हैं!
क्या टीवी स्टूडियो की सांध्यकालीन बहसों में शामिल कुछ कथित सामरिक विशेषज्ञों, जिनमें कई महाशय किसी न किसी हथियार बनानेवाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जुड़े हैं, को हम अपने कार्यरत सैन्य कमांडरों, भारत-पाक सामरिक मामलों के गंभीर जानकारों से ज्यादा महत्व नहीं दे रहे हैं?
ऐसे न्यूज चैनलों की बहस-चर्चाएं सुनते हुए मन क्षोभ और विषाद से भर उठता है. सरहद पर हमारे जवान शहीद हुए हैं, घाटी में रोजाना बच्चे और युवा मारे जा रहे हैं, लेकिन सरहद से कई हजार किमी दूर महानगरों के टीवी स्टूडियो में बैठे कुछ महाशय ‘मार डालो-खत्म कर डालो, टुकड़े-टुकड़े कर डालो’ की दहाड़ लगा रहे हैं. कुछ हिंदी खबरिया चैनल बता रहे हैं, ‘भारत-पाक में परमाणु-युद्ध होने की स्थिति में भारत से ज्यादा नुकसान पाकिस्तान का होगा, वह बरबाद हो जायेगा.’ वे इसे मोटे अक्षरों की हेडिंग के तौर पर पेश कर रहे हैं. सवाल है, क्या परमाणु युद्ध की स्थिति में भारत आबाद रहेगा? ऐसा कहनेवाले लोगों को न तो युद्ध की कोई सैद्धांतिक जानकारी है, न तो उन्होंने कभी कोई युद्ध कवर किया है!
मुझे यह समझ में नहीं आता कि आखिर यह कैसी पत्रकारिता है, जो लोगों के बीच युद्ध के पक्ष में मानस बना रही है! टीवी स्टूडियों को ‘शब्दों के युद्ध-स्थल’ में तब्दील करनेवाले कुछ चैनल बता रहे हैं कि ऐसा भीषण आतंकी हमला 26 सालों में पहली बार हुआ. बड़ा सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ? 2014 में सत्ता में आने के बाद एनडीए नेताओं ने दावा किया कि अब दिल्ली में एक ताकतवर सरकार आ गयी है. दुश्मन की औकात नहीं कि हमारी तरफ आंख उठा कर देखे. फिर आज यह सब क्यों हो रहा है? हमारी अपनी सुरक्षा व्यवस्था में क्या खामी रह गयी?
सीमा पर शांति के लिए आज जरूरत है दो मोर्चों पर काम करने की. एक, विवाद से जुड़े हर पक्ष से राजनीतिक संवाद करने की और दूसरे, अपनी सुरक्षा रणनीति को पुख्ता और अभेद्य बनाने की. पिछले घटनाक्रम साफ बताते हैं कि इन दोनों मोर्चों की हाल के दिनों में ज्यादा अनदेखी हुई है. शब्दों के जरिये आग उगलने के बजाय हमें अपने पेचीदा मसलों को हल करने की समझ और कौशल बढ़ाने पर जोर देना होगा.
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