पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
प्रधानमंत्री मोदी से अौर जो कुछ भी शिकायत किसी को हो, लेकिन वह सरकार की राजनयिक सक्रियता को लेकर कोई नुक्ताचीनी की गुंजाइश नहीं छोड़ते! जब वह खुद दुनिया के दूर-दराज देशों के दौरे पर नहीं होते हैं, तो स्वदेश में ही विदेशी मेहमानों के साथ सामरिक साझेदारी के संदर्भ में महत्वपूर्ण परामर्श करते नजर आते हैं. इन दिनों भी हफ्ते भर में ही अफगानिस्तान के राष्ट्रपति गनी अौर फिर नेपाल के प्रधानमंत्री प्रचंड के भारत में पदार्पण ने हमें यह सोचने को मजबूर किया है कि क्या इन दो-चार दिन तक सुर्खियों को गुलजार रखनेवाली मुलाकातों से भारत के राष्ट्रहित का संरक्षण-संवर्धन वास्तव में होता है?
इस बात का प्रचार किया जा रहा है कि अफगानिस्तान ने भारत के सुर में सुर मिला कर पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद के निर्यात की कड़े शब्दों में भर्त्सना की है. इसके बाद पाकिस्तान बिल्कुल अकेला पड़ गया है. भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए एक अरब डॉलर की धनराशि का ऐलान किया है. यह भी प्रत्याशित था कि इस मौके पर सदियों से चले आ रहे पारंपरिक-सांस्कृतिक रिश्तों का बखान होगा. नया यह था कि भारत द्वारा ईरान में चाबहार नामक बंदरगाह के निर्माण से पूरे क्षेत्र को होनेवाले फायदों का भी जिक्र किया गया अौर इस सिलसिले में अफगानिस्तान के सहयोग की सराहना की गयी.
यह सब बातें हमीद करजई के शासनकाल से सुनी जा रही हैं. कड़वा सच यह है कि अफगान सरकार का प्रभाव काबुल अौर प्रादेशिक राजधानियों-छावनियों के इर्द-गिर्द तक ही सीमित है. काबुल में राजनयिकों का किलेबंद रिहायशी इलाका तक निरापद नहीं समझा जाता. ऐसे में यह कल्पना करना कठिन है कि भारत द्वारा सुलभ आर्थिक या तकनीकी सहायता का मनोवांछित लाभ अफगानिस्तान को मिलेगा या इससे भारत की मौजूदगी सार्थक सिद्ध हो सकेगी. भूमिबद्ध अफगानिस्तान तक भारत की पहुंच वायु मार्ग से ही संभव है. नक्शे पर अमृतसर काबुल के बहुत करीब नजर आता है, पर बीच की बाधा पाकिस्तान को अनदेखा करना मूर्खता है. काफी समय से अमेरिकी यह कोशिश कर रहे हैं कि उनकी वापसी के बाद राजनीतिक स्थिरता की गारंटी भारत ले. हमें यह समझाता रहा है कि अफगािस्तान में पैर जमाने के बाद भारत के लिए पाकिस्तान पर राजनयिक दवाब डालना सहज हो जायेगा. याद रहे कि पाकिस्तान इस सामरिक चुनौती से अनभिज्ञ नहीं अौर आज मोदी तथा गनी के बीच जो कुछ दूरगामी रणनीति पर सहमति बनी है, उसका तोड़ सामने लाते पाकिस्तानी फौज अौर गुप्तचर संगठन को देर नहीं लगेगी.
कुछ ऐसा ही हाल नेपाल का भी है. जिन परिस्थितियों में प्रचंड की ताजपोशी हुई है, उससे नन्हें पड़ोसी देश के राजनीतिक जीवन की गहरी खतरनाक दरारें ही उजागर हुई हैं. प्रधानमंत्री बनने के पहले या इस महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उन्हें भारत के विरुद्ध चीनी तुरुप का पत्ता खेलने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई. यह सोचना नादानी होगी कि आज भी प्रचंड को अभी नेपालियों का तो छोड़िए, पुराने माअोवादियों का भी पूर्ण समर्थन प्राप्त है. यदि वह भारत के निकट आते दिखलाई दिये, तो उनके आलोचक यह लांछन लगाने में देर नहीं करेंगे कि भारत ने उन्हें खरीद लिया है अौर वह नेपाली हितों को कुरबान कर सकते हैं.
यहां समस्या यथार्थ की नहीं, छवि अौर जनसाधारण में व्याप्त गलतफहमियों की है. जिस तरह अफगानिस्तान में भारत की बढ़ती सक्रियता को पाकिस्तान शक की नजर से देखता है, उसी तरह नेपाल में चीन इसे अपने विरुद्ध साजिश ही समझता है. वह नेपाल में भारत के विरुद्ध जिन जहरीले बीजों को बो चुका है, उनका समूल नाश करना आसान नहीं. चीन ही नहीं, पाकिस्तान और अमेरिका भी यही मानते हैं कि भाषा, धर्म, संस्कृति की समानता के कारण भारत यह दावा पेश नहीं कर सकता कि यहां उसका एकाधिकार स्वीकार कर लेना चाहिए. मोदी ने पहले विदेशी दौरे के लिए नेपाल को चुना था अौर उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया. तब से बागमती, काली अौर गंडकी नदियों में बहुत पानी बह चुका है. संविधान का मसौदा सर्वसहमति से तैयार करना असंभव सिद्ध हुआ. इस प्रक्रिया में गतिरोध पर भारत ने असंतोष प्रकट किया, तो इसे नेपाल के अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप कहा गया. अोली के शासनकाल में भारत अौर नेपाल के रिश्तों में खासा मनोमालिन्य देखने को मिला. इसे दूर करने में समय लगेगा.
यह बात गांठ बांधने लायक है कि आज नेपाल में मधेस और पहाड़ के बीच का संघर्ष जारी है. नेपाल में भारतीय विदेशनीति बदलते हालात के अनुसार खुद को ढालने में असमर्थ रही है. सेवानिवृत्त राजनयिक जयंत प्रसाद अौर कार्यरत विदेश सचिव जयशंकर दोनों ही प्रतिभाशाली अनुभवी सलाहकार हैं, पर ऐसा नहीं जान पड़ता कि इनका कोई असर नेपाल में हमारे हितसाधन के लिए हो सका है. इसलिए अफगान राष्ट्रपति हों या नेपाली प्रधानमंत्री इनकी मेहमाननवाजी को ले कर उत्साहित होना सहज नहीं.