।। राजेंद्र तिवारी।।
(कारपोरेट संपादक प्रभात खबर)
लगभग चालीस साल हो गये थे उसे अकेले अपनी जिंदगी जीते हुए. कोई शिकवा किसी से नहीं. वह टीचर की नौकरी में ही अपने जीवन का सुख तलाशती थी. हिंदू हो या मुसलमान, बच्चों को बेहतर नागरिक के तौर पर गढ़ने का काम, वह उसी में लगी रहती थी. कोई शिकायत किसी से नहीं. अपनी किस्मत से भी नहीं. वह अंबे मां की प्रार्थना से अपना दिन शुरू करती आ रही है. शायद उसे बहुत विश्वास है कि उसकी नियति में यही जिंदगी लिखी है और यदि कोई बदल सकता है तो सिर्फ अंबे मां. गर्मियां शुरू हो रही थीं. दूसरे दिनों की तरह उस दिन भी वह बहुत उत्साह से स्कूल आयी थी. उसे क्या पता था कि ये गर्मियां कुछ और लेकर आ रही हैं. एक महिला पत्रकार उसके स्कूल आयी हुई थी. पत्रकार ने उसे तलाशा. वह बहुत रोमांचित थी कि कोई उसकी कहानी जानना चाहता है. उसने कहा भी कि वह सबकुछ बतायेगी. लेकिन उसके मन के एक कोने में आशंकाएं भी थीं. गांव के लोगों की बातें उसके दिमाग में घूम रही थीं.
दरअसल, उसकी कहानी सिर्फ उसकी कहानी नहीं थी. उसकी कहानी उस समय के सबसे ताकतवर व्यक्ति की कहानी भी थी. उसकी कहानी उस व्यक्ति की लोकछवि पर से परदा उठाने की कुव्वत रखती थी. लेकिन उसे अच्छा लग रहा था कि उसके जीवन के 40 सालों को लोग जानना चाहते हैं. पत्रकार से बात शुरू ही हुई थी कि स्कूल के हेडमास्टर आ गये और उसे डांटने लगे कि यह पत्रकार से बात करने का समय नहीं, बल्कि बच्चों को पढ़ाने का समय है. हेडमास्टर ने कहा, स्कूल में छुट्टी हो जाने के बाद बात करना. उसने रिक्वेस्ट की कि क्या वह इंटरवल में बात कर सकती है? कुछ मिनट ही तो लगेंगे. लेकिन हेडमास्टर ने मना कर दिया. वह चली गयी क्लास में. सारा उत्साह काफूर हो गया. उसकी आंखों में बीते चालीस साल की दोनों जिंदगियां उभर रही थीं. एक उसकी अपनी जिंदगी और एक वह जिंदगी जो उसकी हो सकती थी, लेकिन नहीं हुई. जब वह ब्याह कर अपनी ससुराल आयी थी, 17 साल की थी, अपने दूल्हे से लगभग दो साल छोटी. जमा सात तक की पढ़ाई उसने की थी. मां बचपन में ही मर चुकी थी. दो भाई थे. नयी जिंदगी को लेकर उसकी आंखों में तमाम सपने थे. वही सपने, जो छोटे-मोटे घरों की युवतियां देखा करती थीं.
देश में नेहरू युग खत्म हुए कुछ समय बीत चुका था. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं. देश की पहली महिला प्रधानमंत्री. महिला होने के नाते उसके दिमाग पर भी इसका असर था और उसके सपनों पर भी. जिस नौजवान से उसकी शादी हुई थी, वह ज्यादा पढ़ा-लिखा और रोबीला था. वह उसमें रु चि भी लेता था, लेकिन यह लगातार कहता कि तुमको और पढ़ाई करनी चाहिए. चाचा की रेल कैंटीन में चाय बेच कर खर्च चलानेवाले उस नौजवान ने एक दिन कहा कि वह देश घूमने जा रहा है. जहां मन होगा, जायेगा. मेरे जाने के बाद तुम क्या करोगी? वह ससुराल में थी, लेकिन उसके पति (उस नौजवान) ने कहा कि तुम अपने मायके जाकर पढ़ाई पूरी करो. यहां रह कर क्या करोगी? उस वक्त उसके मन में आ रहा था कि वह भी उसके साथ जाये, देश घूमे. लेकिन उसे लगा कि पति जो कह रहा है, वही करना चाहिए. वह मायके चली गयी और वह नौजवान देश घूमने. उसे याद आ रहा था कि अपने पति की अनुपस्थिति में जब वह ससुराल जाती थी, तो उसे क्या-क्या कहा जाता था. उसने ससुराल जाना बंद कर दिया. उस नौजवान ने भी कभी कोई संपर्क नहीं किया. नौजवान महत्वाकांक्षी था और वह संतोषी. उसने पति की सलाह के मुताबिक फिर से पढ़ाई शुरू की. 10वीं की. इस बीच पिता भी गुजर गये.
भाई उसका खर्चा उठाते थे. वह सोचती रहती कि कब तक वह भाइयों पर बोझ बनी रहेगी. लिहाजा टीचर्स ट्रेनिंग में दाखिला लिया. उसे जो चीज सालती रहती थी, वह थी पति की तरफ से संपर्क न किया जाना. इसे भी उसने अपनी नियति के तौर पर ही लिया कि किस्मत में यही लिखा है तो कोई क्या करेगा? लेकिन वह एक भारतीय महिला की तरह उसको अपना पति ही मानती रही. उसके दिमाग में पूरी रील चल रही थी, उन घटनाओं की जो उसके साथ हुई थीं और उन घटनाओं की भी जो होनी चाहिए थीं, लेकिन हुई नहीं. उसे कक्षा में चैन नहीं आ रहा था. उसके सामने पत्रकार का चेहरा घूम रहा था, हेडमास्टर का चेहरा घूम रहा था और अपने पति का भी. उसने कुछ तय किया और कक्षा से निकल कर पत्रकार के पास पहुंची. जल्दी से बोली- मैं अपने पति के खिलाफ कुछ न कहूंगी. वह बहुत ताकतवर हैं. मेरे पास यही एक नौकरी है जीवनयापन के लिए. इतना कह कर वह वापस कक्षा में चली गयी. वह कक्षा में आ तो गयी थी, लेकिन उसका मन नहीं लग रहा था. वह आशंकित थी. उसने देखा, हेडमास्टर किसी से मोबाइल पर बात करने के बाद उसकी तरफ आ रहे थे. हेडमास्टर ने जो कुछ कहा, उससे उसकी आशंकाओं को और बल मिला. स्कूल में कभी कोई गाड़ी आती, कभी कोई. हर गाड़ी से आया व्यक्ति हेडमास्टर से मिलता और चला जाता. उसका डर बढ़ता जा रहा था. स्कूल की छुट्टी हुई. वह स्कूल से निकली और बाहर खड़े टेम्पो में बैठ गयी घर जाने की जल्दी में. लेकिन वह घर न जाकर अपने भाई के यहां पहुंची. इस घटना को तकरीबन चार साल हो गये.
वह अखबार पढ़ रही थी. अखबार में बयान छपा था- एक समुदाय ऐसा है जो अपनी औरतों को जमाने की निगाहों से बचाने के लिए बुर्का पहनाता है. लेकिन उस समुदाय की औरतों को शौच आदि के लिए जंगल में जाना पड़ता है क्योंकि उनके घर में शौचालय व गुसलखाने हैं ही नहीं. वह अपने घर के बारे में सोचने लगी. घर क्या था, किराये का एक छोटा सा कमरा. न किचेन, न लैटरीन-बाथरूम. उसे भी शौच व नहाने के लिए रोज मुंहअंधेरे सुबह उठना पड़ता था. वह बड़े चाव से रोज सुबह अखबार पढ़ती थी और अपने पति से जुड़ी हर खबर का एक-एक अक्षर. लोग उसे उलाहना देते, वह सुन लेती. वह बयान पढ़ती और अपनी जिंदगी पर नजर डालती. अपनी जिंदगी के बरक्स अखबारों के हर्फ उसे खोखले लगते. उम्मीदों और नाउम्मीदी के बीच वह रिटायर भी हो गयी. अब कोई उम्मीद नहीं है उसे. आफिशियल बायोडाटा में भी तो उसका डाटा नहीं. फिर क्यों वह उम्मीद पाले? फिर भी वह सोचती रहती है कि मेरे लिए क्या बचा अब, कल मर जाऊंगी. उनका भला हो रहा है तो उसमें अड़ंगा क्यों बनूं?
फिर एक पत्रकार आया उससे बात करने. पूछा- आप ने दूसरी शादी क्यों नहीं की? वह बोली- शादी का जो अनुभव रहा, उसमें मैं दूसरी शादी की तो सोच ही नहीं सकती थी. पत्रकार ने पूछा- यदि आपके पति लाल किले तक पहुंच गये, तो क्या आप उनके पास जायेंगी, वह बोली- मैं कभी उनसे मिलने नहीं गयी और न ही वे मुझे कभी याद करेंगे. फिर भी मैं कहूंगी कि वह जो कुछ करें, उसमें सफल रहें. मुझे विश्वास है कि वह शिखर पर पहुंचेंगे जरूर.