लोकपाल के मसले पर बात घूम-फिर कर एक ही जगह पहुंचती है कि आखिर इस संस्था को इसकी मूल भावना बचाये रखते हुए अमल में कैसे लायें? ‘लोकपाल’ बनाने के पीछे मूल भावना है- सत्ता के शीर्ष पर मौजूद भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना. लोकपाल का विचार कहता है कि प्राप्त शक्ति के परिमाण के अनुपात में ही उसके दुरुपयोग की आशंका होती है. चूंकि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को अन्यों की तुलना में कहीं ज्यादा शक्ति प्राप्त है, इसलिए ऐसे लोगों द्वारा शक्ति के दुरुपयोग की आशंका भी ज्यादा है.
सो, इस आशंका के मद्देनजर शीर्ष पदों पर बैठे लोगों के शक्ति प्रयोग पर निगरानी और उसके दुरुपयोग पर अंकुश लगाने के लिए कोई कारगर संस्था होनी चाहिए. ‘लोकपाल’ के लिए भारत में चले जनसंघर्ष का इतिहास कहता है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग कभी इस विचार को लेकर सहज नहीं हो पाये.
कोशिश यही रही कि प्रक्रियागत पेचीदगी पैदा कर लोकपाल नाम की संस्था बनने ही ना दी जाये और अगर बन जाये, तो फिर उसे शक्तिहीन करने के उपाय किये जायें. हाल-फिलहाल लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम- 2013 में किया गया संशोधन इसी की एक नजीर है. एक तो प्रस्तावित संशोधन जीरो ऑवर में लाने से इस पर बहस ही नहीं हुई और इसे ध्वनिमत से पारित कर दिया गया. दूसरे, संशोधन के जरिये लोकपाल कानून से ताकत छीनने का काम किया गया
लोकपाल कानून (2013) के एक हिस्से में कहा गया है कि ऊंचे सरकारी पदों पर बैठे लोगों को अपनी संपत्ति का ब्योरा एक नियत तारीख तक सार्वजनिक करना होगा. एक तरफ प्रक्रियागत पेचीदगी पैदा कर इस तारीख को कई दफे बढ़ाया गया, साथ ही संशोधन के जरिये अब पुख्ता इंतजाम कर दिया गया है कि पब्लिक सर्वेंट की श्रेणी में आनेवाले लोगों की संपत्ति का सही-सही पता कभी आम जनता को ना लगे.
संशोधन के बाद पब्लिक सर्वेंट्स की श्रेणी में आनेवाले लोगों पर अपने नजदीकी रिश्ते (पत्नी/पति/संतान) के व्यक्ति की संपदा घोषित करने की बाध्यता खत्म हो गयी है. दूसरे शब्दों में, अर्जित संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक करने पर उसको लेकर जो प्रश्न पूछे जा सकते थे, उन्हें पूछना अब संभव नहीं होगा. अच्छा यही होगा कि विधायिका अपनी साख कम करनेवाली ऐसी कोशिशों से दूर रहे.