13.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

ढाई दशक का सफर

प्रख्यात फ्रांसीसी साहित्यकार विक्टर ह्यूगो ने कभी कहा था कि उस विचार को दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती है, जिसका समय आ गया हो. पच्चीस बरस पहले, 24 जुलाई, 1991 को लोकसभा में तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने अपने पहले बजट भाषण में जब इस कथन को उद्धृत किया था, तो […]

प्रख्यात फ्रांसीसी साहित्यकार विक्टर ह्यूगो ने कभी कहा था कि उस विचार को दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती है, जिसका समय आ गया हो. पच्चीस बरस पहले, 24 जुलाई, 1991 को लोकसभा में तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने अपने पहले बजट भाषण में जब इस कथन को उद्धृत किया था, तो खूब तालियां बजी थीं. इस बजट के साथ ही भारत में लाइसेंस-परमिट राज को विदाई मिली थी और नयी आर्थिक नीतियों के दौर की औपचारिक शुरुआत हुई थी. बजट के कुछ घंटों बाद तत्कालीन उद्योग राज्य मंत्री पीजे कुरियन ने नीतिगत दस्तावेज पेश किया था, जिसमें उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की राह का नक्शा था.
इन ढाई दशकों में आर्थिक सुधार के कई पड़ाव और मोड़ आये. आज हमारी अर्थव्यवस्था 1991 की तुलना में करीब पांच गुनी बड़ी है. कृषि उत्पादों के निर्यात में भारत अग्रणी देशों में शामिल है.
रहन-सहन की शैली बेहतर हुई है, उपभोग के स्तर और आयाम में वृद्धि हुई है. लेखक-इतिहासकार मुकुल केसवन की निगाह में भारत अब ‘एक दूसरा देश’ है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में सेवा क्षेत्र का हिस्सा तकरीबन 44 फीसदी से बढ़ कर 64 फीसदी के पार जा चुका है. खेती और उससे जुड़े व्यवसायों पर निर्भरता कम हुई है. वर्ष 1991-92 में इस क्षेत्र का भाग 28.54 फीसदी था, जो अब 2015-16 में 15.4 फीसदी रह गया है. तब मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र में विकास नकारात्मक (-2.4 फीसदी) था, जबकि बीते वित्त वर्ष में इसका विकास दर 9.5 फीसदी तक पहुंच गया. इसी तरह से विदेशी निवेश और विदेशी मुद्रा भंडार भी तेजी से बढ़े हैं.
गरीबी दर में लगातार कमी हो रही है. उदारीकरण की नीति के व्यापक प्रभाव का एक संकेत इस तथ्य से भी मिलता है कि तब इसके अनेक विरोधी भी आज इसके समर्थन में खड़े हैं. नीतियों के लागू करने की प्रक्रिया और गति को लेकर भले ही परस्पर विरोध नजरिया हैं, पर इसके मूलभूत सिद्धांतों और इसकी प्रासंगिकता को लेकर टकराव बहुत मद्धम पड़ चुका है.
पर, क्या इन उपलब्धियों से पक्के तौर पर संतुष्ट हुआ जा सकता है? नहीं. बीते सालों में जिस तेजी से आबादी, खासकर युवाओं की, बढ़ी है और शिक्षा का प्रसार बढ़ा है, उस अनुपात में रोजगार के उपयुक्त अवसरों की संख्या नहीं बढ़ी है. यह सही है कि मैनुफैक्चरिंग सेक्टर में विकास हुआ, पर जीडीपी में उसकी हिस्से में मात्र तीन फीसदी की बढ़त हुई है.
औद्योगिक उत्पादन और वित्त सृजन में निराशाजनक स्थिति का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि विदेशों में भारतीय निवेश का मौजूदा स्तर 2000-2001 के दर के आसपास है. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि विदेशी मुद्रा भंडार के बढ़ने का एक स्पष्टीकरण यह भी है कि सरकार देश के अंदर और बाहर समुचित निवेश नहीं कर रही है. यह एक तरह से आर्थिक ठहराव को भी इंगित करता है, जिसका एक नतीजा मुद्रास्फीति का निरंतर बढ़ना भी है.
औपचारिक क्षेत्रों में अच्छी नौकरियों की उपलब्धता सुनिश्चित न करा पाना आर्थिक उदारीकरण की सबसे बड़ी असफलता है. बढ़ने की बात तो छोड़ दें, नियमित वेतन-भत्ते और सुरक्षित नौकरियों की संख्या 1997 और 2012 के बीच कम हुई हैं. हालिया आर्थिक सर्वे के अनुसार, 31 मार्च, 2012 तक ऐसी नौकरियों- सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में- में लगे पुरुषों की कुल संख्या 2.35 करोड़ थी, जबकि 1997 में यह संख्या 2.36 करोड़ थी.
यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि 1997 और 2012 के बीच 15 वर्षों में जीडीपी में तेज बढ़ोतरी हुई थी और शेयर बाजार लगातार ऊंचाई पर बना रहा था. वर्ष 2007 में आर्थिक मंदी से पहले और मजबूत वृद्धि के दौर में संगठित क्षेत्र में 2.19 करोड़ पुरुष रोजगार में थे. यह संख्या 1991 में 2.27 करोड़ थी. इन आंकड़ों के संदर्भ में एक उत्साहवर्द्धक तथ्य यह है कि रोजगार में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है, पर वह भी अन्य बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में कमतर ही है. वर्ष 1991 में संगठित क्षेत्र में 37.8 लाख महिलाएं कार्यरत थीं.
वर्ष 2012 तक यह संख्या 60.5 लाख तक पहुंच गयी. अगर संगठित क्षेत्र की कुल नौकरियों का हिसाब लगायें, तो 21 सालों में यानी 2012 तक सिर्फ 28.5 लाख नौकरियां बढ़ीं. रोजगार के योग्य युवाओं की तेजी से बढ़ती संख्या को देखते हुए यह बढ़ोतरी ऊंट के मुंह में जीरा ही है.
कंपनियों के पंजीकरण में तो बहुत तेजी हुई है, पर उद्यमशीलता और नवोन्मेष के लिहाज से प्रगति निराशाजनक ही है. क्या बीते 25 सालों में हम हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर, रिटेल या मशीनरी में दुनिया की जानी-मानी कंपनियों के बरक्स कुछ खड़ा कर सके हैं?
नयी तकनीकों, कंप्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट के हम सबसे बड़े बाजारों में एक तो हो गये, पर क्या हमारे खाते में नोकिया, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक या एप्पल जैसी कोई ठोस उपलब्धि दर्ज हो सकी है? हमारा निर्यात भी पारंपरिक खेती के उत्पादों पर निर्भर है. हम उच्च-स्तरीय शैक्षणिक और शोध संस्थानों की संख्या भी नहीं बढ़ा सके, और न ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और कौशल-विकास को सुनिश्चित कर सके.
जरूरत इस बात की है कि सुधार की दिशा में आगे बढ़ने से पहले बीते दशकों के अनुभवों, उपलब्धियों और असफलताओं पर चिंतन-मनन किया जाये. उद्यमशीलता, बेहतर शिक्षा, समुचित प्रशिक्षण और रोजगार-सृजन में कमी सफलताओं को अधिक देर तक टिकने नहीं देंगे. विचार के साथ विवेक के संयोग से ही विकास की राह आसान हो सकती है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें