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चीनी प्रधानमंत्री से बढ़ती उम्मीदें

।।पुष्परंजन।।(नयी दिल्ली संपादक, ईयू-एशिया न्यूज)रविवार दोपहर के बाद कोई 72 घंटे तक दस किलोमीटर की परिधि में दक्षिण दिल्ली का वह इलाका सीलबंद था, जहां चीनी प्रधानमंत्री ली केचियांग ठहरे थे. ली के लिए शायद इतनी चौकसी पाकिस्तान, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में नहीं होगी. इसके बरक्स इतनी चौकसी तब भी नहीं थी, जब ली के […]

।।पुष्परंजन।।
(नयी दिल्ली संपादक, ईयू-एशिया न्यूज)
रविवार दोपहर के बाद कोई 72 घंटे तक दस किलोमीटर की परिधि में दक्षिण दिल्ली का वह इलाका सीलबंद था, जहां चीनी प्रधानमंत्री ली केचियांग ठहरे थे. ली के लिए शायद इतनी चौकसी पाकिस्तान, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में नहीं होगी. इसके बरक्स इतनी चौकसी तब भी नहीं थी, जब ली के समकक्ष डॉ मनमोहन सिंह तीन दिनों के लिए 13 जनवरी, 2008 को पेइचिंग पधारे थे.

संभवत: चीन की धरती पर किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री, जो वहां राजकीय यात्र पर जा चुके हैं, के लिए ऐसी सुरक्षा व्यवस्था नहीं हुई है. तीन दिनों की भारत यात्रा में ली को ‘अतिथि देवो भव:’ का अहसास अवश्य हुआ होगा. ली की जहां-जहां उपस्थिति थी, वहां-वहां निमंत्रित व्यक्तियों को जितनी सुरक्षा जांच से गुजरनी पड़ी, वह चीनी प्रधानमंत्री के महत्व को अमेरिकी राष्ट्रपति के समकक्ष खड़ा करता है. अमेरिकी राष्ट्रपति जब-जब भारत आते हैं, उनके लिए ऐसी ही सीलबंद व्यवस्था होती है. लेकिन ली के लिए ऐसी सुरक्षा व्यवस्था जिन वजहों से की गयी, उसकी चर्चा मीडिया में नहीं के बराबर ही हुई. उन भारतीय प्रदर्शनकारियों के टीवी फुटेज किसी-किसी चैनल पर ही दिखे, जो लद्दाख में चीनी ‘घुसपैठ’ का विरोध कर रहे थे. मगर, बात हम भारत स्थित तिब्बतियों की कर रहे हैं. ऐसा लगा जैसे उनकी चर्चा पर देशभर में अघोषित सेंसर लगा दिया गया हो. ठीक नेपाल की तरह, जहां माओवादियों के सत्ता में आने के बाद से ही तिब्बती गतिविधियों पर निषेध है. भारत ने अपनी ‘ऑफिशियल पोजिशन’ दोहरा दी कि दलाईलामा इस देश के लिए सिर्फ ‘आध्यात्मिक धर्मगुरु’ हैं. 54 साल के संघर्ष के बाद क्या तिब्बतियों को यही हासिल हुआ है? तिब्बत का सवाल भारत-चीन कूटनीति के बीच एक कांटे की तरह है.

ऐसा तो नहीं कि लद्दाख में बीस दिनों तक ‘टेंट टकराव’ ली की कूटनीतिक रणनीति का हिस्सा रहा है? ली अपनी भारत यात्र में यह भरोसा नहीं दे पाये कि भविष्य में भारतीय सीमा क्षेत्र में टेंट गाड़ने की पुनरावृत्ति नहीं होगी. साझा बयान में ली और मनमोहन ने सीमा पर शांति जरूरी बताया. हमारे प्रधानमंत्री ने इस टेंट कांड को ‘घुसपैठ’ नहीं, ‘घटना’ की संज्ञा दी. कूटनीति की भाषा में अपने समकक्ष को इससे अधिक कहना भी कम से कम मनमोहन सिंह जैसे ‘सॉफ्ट’ और ‘शालीन’ प्रधानमंत्री के लिए मुश्किल बात है. लेकिन क्या सिर्फ बयान देने से सीमा पर शांति आ जायेगी, और ‘घुसपैठ’ नहीं होगी? या फिर, भारत-चीन के बीच सीमा विवाद समाप्त करने के लिए ‘कोर ग्रुप’ द्वारा एक तय समय की भी आवश्यकता है?

अक्तूबर, 1954 में पंडित नेहरू चीन गये थे. 1962 के युद्घ के बाद दोनों देशों के बीच जो संबंध टूटा, वह अगस्त 1976 में जुड़ा. दिसंबर, 1988 में राजीव गांधी के चीन जाने के बाद कूटनीति का शिखरस्तरीय संवाद आरंभ हुआ. तब से लेकर जो भी भारतीय प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, और राजनीतिक दलों के नेता चीन गये, सबने सीमा विवाद समाप्त करने के बारे में बातें कीं. चीन की ओर से भी मना नहीं हुआ कि हम सीमा का समाधान नहीं चाहते. यदि दोनों देशों का नेतृत्व आज भी यही ‘पोजिशन’ बनाये हुए है कि हम सीमा पर शांति चाहते हैं, तो एक तरह से 1993, 1996 और 2005 में हुए समझौतों को दोहराया जा रहा है, जिसमें सीमा पर शांति बनाये रखने की बात की गयी थी. लेकिन देर-सवेर सीमा विवाद को सुलझाना ही होगा. नहीं सुलझा, तो सारे किये पर पानी फिर सकता है, जैसा कि पाकिस्तान के मामले में होता है.

यह समय दोषारोपण का भी नहीं है कि मनमोहन सिंह सीमा विवाद का हल किये बिना चीन से व्यापारिक दोस्ती बढ़ा रहे हैं. एनडीए के कुछ नेताओं के मन में यदि यह सवाल है, तो उन्हें यह ध्यान में रखना होगा कि दस साल पहले जून, 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी चीन गये थे, और बिना सीमा विवाद का समाधान किये, समग्र व्यापारिक सहयोग समझौते पर उन्होंने हस्ताक्षर किया था. इसी समझौते के आधार पर सिक्किम-तिब्बत सीमा से व्यापार आरंभ हुआ. भारतीय प्रधानमंत्री की उस यात्र की यह उपलब्धि रही थी कि 2003 में चीन ने सिक्किम को भारत का अभिन्न अंग स्वीकार कर लिया था.चीन-भारत के बीच सीमा विवाद के हल के लिए पंद्रहवें दौर की बातचीत हो चुकी है. क्या सीमा विवाद को समाप्त करने का इतिहास ली और मनमोहन सिंह रच पायेंगे? यह एक कठिन सवाल है, और इसका उत्तर भी उतना ही कठिन है, क्योंकि भारत-चीन सीमा विवाद विक्रम और बेताल की कहानी की तरह है, जिसका हल दोनों तरफ के मजबूत और संकल्प वाले ‘लीडरशिप’ के माध्यम से ही संभव है.

चीन की 22 हजार, 117 किलोमीटर लंबी जमीनी सीमाएं जिन 14 देशों को छूती हैं, उनमें भारत और भूटान को छोड़ कर बाकी 12 देशों से चीन अपना जमीनी विवाद सुलझा चुका है. भूटान चीन का अकेला पड़ोसी है, जिससे उसके राजनयिक संबंध तक नहीं हैं. चीन-भारत के बीच व्यापार को बढ़ावा देने की वकालत करनेवाले आर्थिक विश्लेषक जापान का उदाहरण देते हैं, जिसका चीन से सिनकाकू द्वीप समूह पर दावेदारी को लेकर अरसे से विवाद चल रहा है, उसके बावजूद दोनों देश सबसे बड़े व्यापारिक साङोदार हैं.

पिछले साल छपी सी राजामोहन की एक किताब ‘समुद्र मंथन’ में चीन-भारत की चिर शत्रुता की भरपूर चर्चा की गयी है, कि किस तरह हिमालय से उतरी यह ‘अदावत’ हिंद-प्रशांत महासागर में विस्तार ले चुकी है. इस पुस्तक में देव (भारत) और दानव (चीन) के बीच हुए ‘समुद्र मंथन’ से जो अमृत और विष निकला, उसे अमेरिका (नीलकंठ) द्वारा पी लेने का जो रूपक राजामोहन ने तैयार किया है, उसमें लगता है बहुत कुछ फेरबदल होगा. हिमालय से हिंद-प्रशांत तक, या फिर उससे आगे ‘साउथ चाइना सी’ तक भारत-चीन ही नहीं उलङो रहे, अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और दूसरे पश्चिमी देश भी इस पूरे इलाके पर अपने प्रभाव के लिए प्रतिस्पर्धा करते रहे. ‘नीलकंठ’ की तरह अमेरिका ने विष को अपने कंठ में नहीं रोक रखा है, उस विष को कूटनीति में फैलाने की जब जरूरत होती है, अमेरिका उसे उगल देता है.

हिमालय से लेकर हिंद-प्रशांत महासागर तक अमेरिका कम से कम यह नहीं चाहता कि चीन और भारत एक हों. लेकिन अब भू-सामरिक परिस्थितियां बदल रही हैं. 2014 में अफगानिस्तान साझा सहयोग की प्रयोगशाला के रूप में परिवर्तित हो सकता है, जहां चीन, भारत, रूस, ईरान और पाकिस्तान एक साथ कूटनीतिक सहयोग कर सकते हैं. इस ‘ग्रेट गेम’ पर काम चल रहा है. ली के भारत रहते, अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई यों ही नयी दिल्ली नहीं आये हैं!

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