।।अवधेश कुमार।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
जब मनमोहन सिंह को नरसिंह राव ने 1991 में वित्त मंत्री बनाया था, उस समय उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि आनेवाले दिनों में वे प्रधानमंत्री बनेंगे और जवाहर लाल नेहरू तथा इंदिरा गांधी के बाद लगातार सबसे लंबे समय तक पद पर रहने का रिकॉर्ड भी बना लेंगे. उन्होंने नौ साल का कार्यकाल पूरा किया है और यदि कांग्रेस ने समय से पहले आम चुनाव कराने का निर्णय नहीं लिया तथा सपा का साथ जारी रहा तो वे दस वर्ष भी पूरा कर लेंगे. संप्रग सरकार एवं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम कई कारणों से आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में दर्ज हो चुका है. किंतु, क्या इस सरकार की महिमा भी ऐसी ही चमकदार है, जिसे बेहतर रिकॉर्ड के रूप में याद रखी जा सके?
नौ साल पूरा होने पर सरकार की ओर से भारी भरकम खर्च करके जो विज्ञापन बना है, उसके अनुसार तो सरकार के नाम जनसेवा और देश को आर्थिक-सामाजिक क्षेत्र में ऊंचाइयों तक ले जाने, विदेश नीति में भारत की धाक जमाने का गर्व करने योग्य कीर्तिमान है. पर हकीकत तो स्वयं संप्रग के नेताओं के चेहरे पर उभरती चिंता की लकीरों और जनता के प्रश्नों का जवाब देने में हकलाहट से पता चलता है. सरकार ने क्या किया, क्या नहीं किया या फिर क्या करना चाहिए था जो नहीं किया, आदि प्रश्नों पर मतभेद की गुंजाइश है. सबसे मूल तत्व किसी सरकार के नेतृत्व की महिमा है. संप्रग सरकार के पहले दिन से प्रधानमंत्री की अथॉरिटी, यानी सत्ताधिकार प्रश्नों के घेरे में रहा है. पूरे देश की सोच यही है कि सत्ता की बागडोर सोनिया गांधी के हाथों में है. हालांकि कांग्रेस का कहना है कि सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को काम करने की पूरी आजादी दे रखी है, लेकिन देशवासी और स्वयं कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता भी असली सत्ताधिकार सोनिया में ही निहित मानते हैं.
हाल में राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के लिए दिग्विजय सिंह ने यही दलील दी कि दो सत्ता केंद्र होने से समस्याएं उत्पन्न होती रही हैं. जिस सरकार के नेतृत्व की महिमा कमजोर है, उसका सम्मान कितना हो सकता है! संविधान में कहा गया है कि प्रधानमंत्री राष्ट्रपति के प्रसादर्पयत ही पद पर बने रह सकते हैं, किंतु संप्रग सरकार में स्थिति दूसरी है. गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री पर दबाव साथी एवं समर्थक दलों का होता है. हमने देखा है कि संप्रग-1 में वामदलों एवं संप्रग-2 में साथी दलों के दबाव में मनमोहन सिंह कई बार पशोपेश में आये. गठबंधन और समर्थक दलों के दबाव के अलावा हर समय एक और प्रत्यक्ष या परोक्ष दबाव प्रधानमंत्री एवं कांग्रेस के सारे मंत्रियों के मनोविज्ञान में रहता है. सोनिया गांधी दबाव बनाएं या नहीं, पर मनोविज्ञान पर उसका हावी रहना निश्चित है. परोक्ष दबाव इस मायने में कि सोनिया गांधी कुछ न कहें तो भी यह भय कि पता नहीं इस निर्णय पर वे क्या सोचेंगी. इसे सामान्यत: राजनीतिक आरोप मान कर खारिज कर दिया जाता है, किंतु हमारे लोकतंत्र की विचारधारा, उसके भविष्य एवं देश की नियति का महत्वपूर्ण प्रश्न इससे नत्थी है. भारत का प्रधानमंत्री केवल सरकार का मुखिया नहीं, देश का नेता भी है. वह करीब सवा अरब लोगों का प्रतिनिधित्व करता है. मनमोहन सिंह पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने एक नेता के रूप में जनता के बीच कभी काम नहीं किया. वे न लोकसभा में संसदीय दल के नेता हैं और न संसदीय दल के अध्यक्ष. कांग्रेस संसदीय दल ने 18 मई, 2004 को नेता के रूप में सोनिया गांधी को चुना था. यहां तक कि कांग्रेस पार्टी में भी उनके सम्मान का कारण भी सोनिया गांधी ही हैं. यानी मनमोहन सिंह की पूरी शक्ति और सम्मान का स्नेत सोनिया हैं.
किसी सरकार पर पार्टी का नियंत्रण उचित है और आवश्यक भी, किंतु पार्टी का नियंत्रण वैचारिक और सैद्घांतिक नैतिकता तक ही सीमित हो सकती है. किंतु यह यथेष्ट नहीं हो सकता कि सरकार का मुखिया ऐसा व्यक्ति हो, जिनकी जन नेतृत्व की पृष्ठभूमि ही नहीं हो. किसी भी चुनाव आधारित स्वस्थ लोकतंत्रवाले देश में यह स्थिति असह्य होनी चाहिए. भारत इसे सहन कर रहा है, तो यह हमारी स्वस्थ राजनीतिक और लोकतांत्रिक प्रणाली का प्रमाण नहीं हो सकता है. पीएम की शक्ति का स्नेत उसकी नेतृत्व क्षमता होनी चाहिए. मनमोहन सिंह शालीन व ईमानदार हो सकते हैं, पर जनता का नेतृत्व करने की क्षमता से विहीन होना उनकी ऐसी दुर्बलता है, जिसके कारण प्रधानमंत्री के रूप में उनकी भूमिका प्रश्नों के घेरे में आयी है. आम जनता के मन में ऐसे सवाल हैं.