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गरमी की छुट्टियां

गरमी की छुट्टियां खत्म हो रही हैं और पूरी छुट्टियां इन गरमी की छुट्टियों की ही याद आती रही. एक जमाने में हमारे जीवन में स्कूल से लेकर कॉलेज तक, घर से बाहर रह कर पढ़ने के कारण गरमी की छुट्टियों का खास महत्व होता था. हम साल भर इन छुट्टियों का इंतजार करते थे. […]

गरमी की छुट्टियां खत्म हो रही हैं और पूरी छुट्टियां इन गरमी की छुट्टियों की ही याद आती रही. एक जमाने में हमारे जीवन में स्कूल से लेकर कॉलेज तक, घर से बाहर रह कर पढ़ने के कारण गरमी की छुट्टियों का खास महत्व होता था. हम साल भर इन छुट्टियों का इंतजार करते थे. सबसे लंबी छुट्टियां यही होती थीं. हम हॉस्टल से घर आते थे और महीने-दो महीने की छुट्टियों में गांव-घर का आस्वाद लेते थे, एक बार फिर से उस जीवन में रम जाते थे.

गांव भर के लोग अपने लगते थे और उससे बाहर सब पराया. कितना अच्छा लगता था गरमी की छुट्टियों में घर आना. आज इतने साल बाद भी चूंकि मैं अध्यापन के पेशे में हूं, इसलिए आज भी गरमी की छुट्टियां होती हैं, लेकिन अब गांव जाना नहीं हो पाता है. हर साल सोचता हूं कि इस साल जाना है, लेकिन जैसे-जैसे छुट्टियां करीब आती जाती हैं, हमारा गांव जाना टलता जाता है.

क्यों टलता जाता है? क्या इसलिए कि गांव अब वह गांव नहीं रहा? क्या इसलिए कि परायी दुनिया से जिस अपनापन को पाने के लिए हम ट्रेन की लंबी यात्रा करने के बाद अपने गांव-घर पहुंचते थे, अाज वही दुनिया परायी लगने लगी है? मन जिस गांव में जाना चाहता है, वह गांव अब नहीं रहा, वे लोग अब नहीं रहे. सब कहीं और चले गये हैं. असल में जो गांव हमारे मन में है और जो गांव असल में है, उसके बीच कोई तालमेल नहीं लगता है. राष्ट्रकवि दिनकर जी की पंक्तियां याद आती हैं कि- ‘‘घर वह नहीं होता है, जहां हम रहते हैं, बल्कि घर वह होता है, जहां हमको प्यार मिलता है.’’ एक जमाना था कि इसी प्यार के लिए हम अपनों के बीच भागते थे. लगता था कि जहां रहते हैं, वह जगह तो परायी है. अपनी जगह तो वह है, जहां लोग आपका इंतजार करते हैं.

असल में विस्थापित जीवन ने अपने और पराये के इस भेद को मिटा दिया है. बचपन का गांव मन में है, लेकिन भौतिक रूप से दिल्लीवाला हो गया हूं. मेरी बेटी 10 साल की हो गयी है, लेकिन उसने अपना वह गांव नहीं देखा है. वह गांव जहां वह कभी भले नहीं गयी है, लेकिन जो उसका घर कहलायेगा, उसका अपना घर. क्योंकि वही उसके पुरखों की धरती है. उसके पिता का बचपन जहां बीता है, जिसके खेतों में, बागानों में उसके पिता की स्मृतियां घूमती हैं. लेकिन उसके मन में उस गांव को लेकर न तो किसी तरह की हूक उठती है और न ही कोई तड़प.

वह गरमी की छुट्टियों में वहां जाना चाहती है, जहां से लौट कर वह स्कूल में अपने दोस्तों को बता सके कि वह कहां घूमने गयी थी. हमारे लिए गरमी की छुट्टियों का मतलब होता था अपनेपन की तलाश में जाना, अपनों की छांह पाना. लेकिन मेरी बेटी के लिए गरमी की छुट्टियों का मतलब है घूमने जाना. कहीं ऐसी जगह घूमना, जहां से लौट कर वह स्कूल में एक निबंध लिख सके. अपने दोस्तों को वह बता सके कि वह जहां गयी थी, वहां उसने क्या-क्या देखा. वह विस्थापित परिवार की पहली पीढ़ी की लड़की है. उसको कुछ भी अपना नहीं लगता है और न ही कुछ पराया.

गरमी की छुट्टियां बीत रही हैं. याद आता रहा अपना गांव. हालांकि, मैं शिमला घूमने गया था, क्योंकि मेरी बेटी को पहाड़ बहुत पसंद हैं. अब जीवन का लंबा समय घर से बाहर बिताने के बावजूद मुझे भी पहाड़, समंदर घूमना बहुत पसंद है. लेकिन क्या करूं हर बार गरमी की छुट्टियों में याद आता है नेपाल की सीमा पर बसा अपना गांव. नागार्जुन की एक कविता की पंक्तियां याद आ रही हैं- ‘‘याद आता मुझे अपना वह तरौनी ग्राम/ याद आतीं लीचियां, वे आम/ याद आते धान याद आते कमल, कुमुदनी और ताल मखान…’’

प्रभात रंजन

कथाकार

prabhatranja@gmail.com

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