वैचारिक असहमति की मौजूदगी और गुंजाइश से पता चलता है कि कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था कितनी जीवंत है. इसीलिए लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति के बुनियादी अधिकार के रूप में स्वीकार करती हैं. सही है कि यह स्वतंत्रता प्रदान करते हुए कुछेक मर्यादाओं के पालन की अपेक्षा की जाती है और मयार्दाओं के अधीन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तनिक सीमित होती है. परंतु मयार्दाओं को अपरिभाषित नहीं छोड़ा गया है. इसके मूल में है कि सार्वजनिक जीवन में अमन कायम रहे.
जन-अधिकारों के लिए संघर्षरत वकील प्रशांत भूषण ने एक टीवी प्रोग्राम में शिरकत करते हुए राय रखी थी कि कश्मीर में सेना की मौजूदगी जिस सीमा तक वहां के नागरिकों की सुरक्षा से संबंधित है, उस सीमा तक सेना की तैनाती में कश्मीर के लोगों की राय का भी सम्मान होना चाहिए. कश्मीर का मसला ऐतिहासिक कारणों से शेष देश से तनिक अलग है. वहां जारी अलगाववादी रुझान और उसे पड़ोसी देश से मिलनेवाली शह को देखते हुए जितना यह कहना ठीक है कि कश्मीर में सेना सीमाओं की रक्षा के लिए तैनात की जाती है, उतना ही यह कहना कि कश्मीर में सेना की मौजूदगी आंतरिक सुरक्षा के लिए भी जरूरी है.
चूंकि प्रशांत भूषण की राय से उनके दल आम आदमी पार्टी ने खुद को अलग कर लिया था, इसलिए बात वहीं खत्म हो जानी चाहिए थी. पर, देश में कुछ लोग बात को खत्म करने से ज्यादा रुचि इस बात में दिखाते हैं कि कहनेवाले व्यक्ति या संस्था को ही खत्म कर दिया जाये. हिंदू रक्षक दल के सदस्यों ने आप के दफ्तर पर हमला बोल कर इसी मानसिकता का परिचय दिया है. किसी बात का विरोध उचित तर्क की जगह लाठी-डंडे और शोर-शराबे से करने से यही जाहिर होता है कि विरोध करनेवालों की आस्था न तो लोकतंत्र में है, न ही व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा में.
इस हमले से फिर सिद्ध हुआ है कि उन्मादी भीड़ अपनी मनोवृत्ति में फासिस्ट होती है. ऐसे लोगों से आप के नेता अरविंद केजरीवाल ने ठीक ही कहा है कि कश्मीर का मसला मेरी जान लेने से खत्म होता हो, तो मुङो ही मार दो! उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदू रक्षक दल या उस सरीखे अन्य समूह आगे से अपनी वैधता बनाये रखने के लिए लाठी की जगह तर्क का सहारा लेंगे.