पिछले एक हफ्ते से गांव में पछिया हवा का जोर है. लोग सहमे हुए हैं, क्योंकि आगजनी की घटना सबसे अधिक इसी दौरान होती है. एक तरफ सूरज का प्रचंड ताप तो दूसरी ओर तेज पछिया हवा. ऐसे मौसम में जल-स्तर नीचे गिर जाता है और पोखर सूख जाते हैं. पानी के बाद अब पोखर का कीचड़ भी सूखने के कगार पर है. कीचड़ों पर दूब उगने लगी है. प्यासी-भूखी वनमुर्गियां झुंड में दूब के आसपास मंडराती हैं. प्रचंड धूप में भी इन्हें देख कर लगता है कि हम कितने आलसी हैं. हम धूप से डरने लगे हैं. धूप में निकलते भी हैं तो ‘सनस्क्रीन क्रीम’ लगा कर, जबकि यह तो प्रकृति के व्याकरण का हिस्सा है. इसे स्वीकार करना चाहिए, संघर्ष करना चाहिए.
पोखर के पूरब के खेत में पटवन के बाद जमा पानी में कीड़ों को ढूंढने के लिए बगुले आये हैं. दो दिनों से मक्का के खेतों में पटवन हो रहा है. नहर में पानी आता नहीं है, सो किसानी समाज पंपसेट पर निर्भर है. वे बगुले पोखर में भी ताका-झांकी कर लेते हैं. पोखर के आसपास जंगली बतकों के बच्चे ‘पैक-पैक’ करते हुए चक्कर मार रहे हैं. पोखर में जहां कुछ पानी बचा है, उसमें सिल्ली चिड़िया डुबकी लगा रही है. जब पूरे देश में पानी को लेकर बहस हो रही है, उस वक्त किसान खेतों में संघर्ष कर फसल की रक्षा कर रहे हैं, साथ ही जीव-जंतुओं को पानी भी मुहैया करा रहे हैं. कभी इस पर भी बात होनी चाहिए.
उधर, पोखर के कीचड़ में कोका के फूल आये हैं. गरमी में इस फूल की सुंदरता देखनेवाली होती है. नीले और उजले रंग में डूबे इस फूल को देख कर मन में ठंडी बयार चलने लगती है. तपती गरमी में पोखर को देख कर मुझे कोसी की उपधारा ‘कारी-कोसी’ की याद आ रही है. बचपन में गाम की सलेमपुरवाली काकी कारी कोसी के बारे कहानी सुनाती थी. कहती थी कि डायन-जोगिन के लिए लोग सब कारी कोसी के पास जाते हैं. लेकिन हमें तो चांदनी रात में कारी कोसी की निर्मल धारा में अंचल की ढेर सारी कहानियां नजर आती थीं. बंगाली मल्लाहों के गीत सुनने के लिए कारी कोसी पर बने लोहे के पुल पर मैं खड़ा हो जाता था. हर साल बंगाल के मल्लाह यहां डेरा बसाते थे और भांति-भांति की मछलियां फंसा कर बाजार ले जाते थे. इस पुल से ढेर सारी यादें जुड़ी हैं. यहां से दूर-दूर तक परती जमीन दिखती है और बीच-बीच में गरमा धान के खेत भी हैं.
करीब दस साल पहले तक बंगाली मल्लाह कारी-कोसी के तट को हर साल बसाते थे, धार की जमीन में धान की खेती करते हुए सबको हरा कर देते थे. ये सभी मेहनत से नदी-नालों-पोखरों में जान फूंक देते थे. इस समुदाय ने मेहनत कर कोसी के कछार को सोना उपजानेवाली माटी बनाया और फिर हमें सौंप कर निकल गये. मल्लाह समुदाय के लोगों ने इलाके को अलग तरह की खेती और मछली पालन के अलावा बांग्ला गीतों का भी दीवाना बनाया. सुबह-शाम कारी कोसी के किनारे बसी बस्तियों से गुजरते हुए आज भी बांग्ला गीत सुनने को मिल जाते हैं.
अक्सर गांव का बिशनदेव उन बंगाली मछुआरों की बस्ती में जाता था और जब लौटता था, तो उसके हाथ में चार-पांच देशी काली और कुछ सफेद मछलियां होती थीं. उन्हें अंगना में चूल्हे के पास रख कर वह कहता- ‘सब भालो, दुनिया भालो, आमि-तुमि सब भालो, दिव्य भोजन माछेर झोल…’ बिशनदेव की ऐसी बातों को सुन कर गाम में सबने उसका नामकरण ‘पगला बंगाली’ कर दिया था. काली मछलियों को लेकर वह ढेर सारी कहानियां सुनाता था. हम सब उसकी बातों में डूब कर पूर्णिया से पश्चिम बंगाल के मालदा जिला पहुंच जाते थे.
अब बिशनदेव नहीं है, लेकिन पछिया हवा के बीच पुराने पोखर के नजदीक से गुजरते हुए आज कारी-कोसी की यादें ताजा हो गयीं.
गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
girindranath@gmail.com