अंजलि सिन्हा
सामाजिक कार्यकर्ता
मृत्यु के बाद पार्थिव शरीर को आग के हवाले करने की परंपरा के चलते भारत में हर साल 50 से 60 लाख पेड़ काटे जाते हैं. ऐसे समय में जब दुनिया में पर्यावरण असंतुलन पर गंभीर विमर्श हो रहा हो, अंतिम संस्कार के लिए बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई क्या उचित है? क्या इस पर पुनर्विचार नहीं होना चाहिए?
कुछ समय पहले राष्ट्रीय हरित पंचाट ने न केवल दाह संस्कार के तरीकों पर चिंता प्रकट की थी, बल्कि इन तरीकों से पर्यावरण को होनेवाले नुकसान की भी चर्चा की थी. पंचाट भल्ला नामक एडवोकेट द्वारा डाली गयी याचिका पर विचार कर रहा था, जिसमें कहा गया था कि पारंपरिक पद्धति से लोगों का किया जा रहा अंतिम संस्कार वायु प्रदूषण को बढ़ावा दे रहा है, इसलिए अंतिम संस्कार की वैकल्पिक पद्धतियों को प्रयोग में लाना चाहिए. याचिका के मुताबिक इसके चलते ‘जंगल काटे जा रहे हैं और मृत शरीरों के दहन से दूषित करनेवाले गैस निकलते हैं, जो हवा को प्रदूषित करते हैं.’ याचिका में कहा गया था कि भले ही लोग मृत शरीर के खुले में जलाये जाने को ‘आत्मा के मुक्त होने’ और ‘मोक्ष प्राप्ति’ से जोड़ते हों, वास्तविकता में वह पर्यावरण के लिए खतरा है.पार्थिव शरीर के निपटारे के मुद्दे पर इसके अलावा भी समाज में कई लोगों ने बदलाव की जरूरत महसूस की है.
मसलन, दिल्ली में पर्यावरण की बेहतरी के लिए सक्रिय एक संस्था ‘मोक्षदा’ ने दहन के वैकल्पिक तरीकों को विकसित करने की कोशिश की है. संस्था के मुताबिक, पारंपरिक तरीकों के दाह संस्कार से लकड़ी के जलने से हवा में लगभग अस्सी लाख टन कार्बन मोनोआॅक्साइड या ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है. दहन के बाद निकलनेवाली राख जलाशयों या नदियों में फेंकी जाती है, जो उनकी विषाक्तता बढ़ाती है.
एक शव को ढंग से जलाने में लगभग चार क्विंटल लकड़ी लग जाती है. वजन बढ़ाने के लिए लकड़ियां गीली रखी जाती हैं, जो अधिक धुआं पैदा करती हैं.
ब्रिटेन में लाखांे की तादाद में हिंदू, सिख आदि पार्थिव शरीर का दहन करते हैं, लेकिन वहां खुले में शव जलाने में पाबंदी है. कुछ समय पहले घई नामक एक ब्रिटिश हिंदू ने ब्रिटेन की अदालत में इसे लेकर लड़ाई भी लड़ी कि वह जब मरे तब उसे खुले में जलाये जाने की इजाजत मिले. मुकदमे में जब घई ने अपने धार्मिक अधिकारों की दुहाई दी, तब उसे अनुमति मिली, मगर ढेर सारी शर्तें भी लगा दी गयीं.
निश्चित ही लकड़ी पर जलाने के बजाय विद्युत शवदाह गृह ज्यादा अनुकूल एवं आसान तरीका हो सकता है या सीएनजी आधारित शवदाह गृह भी प्रयुक्त हो सकते हैं, मगर लोगों में जो धारणाएं मौजूद हैं, वह इस रास्ते में बड़ी बाधा हैं. शवदाह गृहों के बंद होने, उनमें अचानक खराबी आने जैसी समस्याओं का लोगों को सामना करना पड़ता है. ऐसे शवदाह गृहों पर जो कर्मचारी तैनात होते हैं, वे भी जागरूक नहीं होते.
इस मसले पर जागरूकता ही सबसे महत्वपूर्ण है. कोई कानून काम नहीं आयेगा, हर जीते इनसान को ही बोलना होगा कि मृत्यु के बाद उनके परिजन ऐसा कोई तरीका इस्तेमाल न करें, जो पर्यावरण के लिए नुकसानदेह हो. कब्रगाहों के बारे में भी अक्सर यही बात आती है कि अब जगह कम पड़ने लगी है यानी वहां भी देर-सबेर कोई दूसरा उपाय तलाशना पड़ेगा.
जैसा माहौल देश में बन रहा है, यह भी संभव है कि धार्मिक आजादी की बात करते हुए सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित करनेवाले इस मसले पर बात ही न होने दी जाये. हालांकि, उम्मीद की जानी चाहिए कि समाज के सचेत लोग इसे अपनी आस्था के साथ जोड़ कर नहीं देखेंगे और पर्यावरण एवं समाज के भविष्य के बारे में जरूर सोचेंगे.