डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
विधायक द्वारा कथित रूप से लाठी मार कर घोड़े की टांग तोड़ देने से मुझे उस पर बड़ा तरस आया. हालांकि, विधायक ने घोड़े को लाठी मारने से इनकार किया है और मुझे भी उसकी बात में दम लगता है, क्योंकि हर किसी चीज को लाठी नहीं कहा जा सकता. विधायक पर जो संदेह है, उसे उसका लाभ मिलना ही चाहिए.
घोड़ा शुरू से ही मनुष्य के बहुत काम आता रहा है. अनिद्रा का तो वह रामबाण इलाज है. जब भी किसी को नींद न आती हो, वह किसी घोड़े खरीदनेवाले को ढूंढ़े, उसे अपने घोड़े बेचे और फिर देखे कि कितनी बढ़िया नींद उसे आती है. हालांकि, इस उपाय में यह स्पष्ट नहीं है कि जिसके पास घोड़े न हों, क्या वह पड़ोसी के घोड़े बेच कर भी उतनी ही चैन से सो सकता है या नहीं?
वैसे सामान्य बुद्धि यह कहती है कि तब भी उसे उतनी ही गाढ़ी नींद आयेगी, क्योंकि घोड़े तो घोड़े हैं, चाहे अपने हों या पराये, अलबत्ता इससे पड़ोसी की नींद जरूर उड़ सकती है. उस स्थिति में वह भी किसी दूसरे पड़ोसी के घोड़े बेच कर सो सकता है. ऐसे ही अवसरों के लिए तो कहा गया है कि पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आता है. इसमें बस एक ही कठिनाई है कि इतनी रात गये कोई घोड़े खरीदनेवाला न मिला तो क्या होगा?
आदमी का एक और महत्त्वपूर्ण काम बिना घोड़े के नहीं हो सकता. वह काम है शादी. शादी करने के लिए लड़की की जितनी जरूरत होती है, उससे कम जरूरत घोड़े या घोड़ी की नहीं होती. हालांकि, दूल्हे से आसानी से घोड़ी पर चढ़ा नहीं जाता, गधे जैसी हालत हो जाती है उसकी घोड़ी पर चढ़ते हुए, फिर भी वह घोड़ी चढ़ना जरूरी समझता है. कई बार तो पूछना पड़ जाता है कि तैन्नू घोड़ी किन्ने चढ़ाया…? घोड़ी से उतारना भी उसे उतना ही मुश्किल होता है, पैसे देकर उतरवाना पड़ता है उसे.
डाका डालने में भी घोड़े की उपयोगिता विश्वप्रसिद्ध है. आदमी के पास घोड़ा न होता, तो डाके की जगह उसे कोई और धंधा तलाशना पड़ जाता. सदियों से युद्ध में भी घोड़ा बहुत काम आता रहा है.
राणा प्रताप का घोड़ा चेतक इस दृष्टि से बहुत कमाल का घोड़ा था. खुद राणा प्रताप को उसके मामले में बहुत सतर्क रहना पड़ता था, क्योंकि उसकी तनिक हवा से भी बाग हिलती थी, तो वह सवार को लेकर उड़ जाता था और राणा की पुतली फिरती नहीं थी, तब तक चेतक मुड़ जाता था. इसलिए घोड़े की बाग और अपनी आंख की पुतली का राणा को बहुत ध्यान रखना पड़ता था.
आधुनिक युग में परिवहन और युद्ध के अन्य साधन सामने आ जाने कारण घोड़े का उपयोग विधायकों या सांसदों की खरीद-फरोख्त के व्यापार के लिए होने लगा है, जिसे हॉर्स-ट्रेडिंग का नाम दिया गया है, बावजूद इसके कि इसमें घोड़ों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कोई योगदान नहीं होता. असल में इसमें विधायक या सांसद खुद घोड़े बनते हैं, जिनकी सत्ता पक्ष और विपक्ष खरीद-फरोख्त करता है.
सत्ता-पक्ष कहता है कि विपक्ष ने उनकी खरीद की है और विपक्ष सत्ता पक्ष पर इसका आरोप लगाता है. फरोख्त यानी बिक्री करनेवाले का नाम कोई नहीं बताता, हालांकि बिना बिक्री के खरीद संभव नहीं हो सकती है. शायद घोड़े खुद अपने को बेचते हों.
उत्तराखंड में यह हॉर्स-ट्रेडिंग थोड़ी उलझ-सी गयी है और अदालत तक पहुंच गयी है. देखें, घोड़े बेच कर वहां कौन सो पाता है और किसकी नींद उड़ती है?