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हिफाजत और सफाई की कीमत

नासिरुद्दीन वरिष्ठ पत्रकार मोहल्ले में दो जन रोजाना आते हैं. एक रात में. दूसरा दिन में. एक का काम रात में हमारे घरों की हिफाजत करना है. दूसरे का काम मोहल्ले भर की गंदगी इकट्ठा कर ले जाना है. एक दूर नेपाल की घाटियों से आता है. दूसरा असम के किसी इलाके से. दोनों की […]

नासिरुद्दीन
वरिष्ठ पत्रकार
मोहल्ले में दो जन रोजाना आते हैं. एक रात में. दूसरा दिन में. एक का काम रात में हमारे घरों की हिफाजत करना है. दूसरे का काम मोहल्ले भर की गंदगी इकट्ठा कर ले जाना है. एक दूर नेपाल की घाटियों से आता है.
दूसरा असम के किसी इलाके से. दोनों की जबान भी हमारी जैसी नहीं है. एक हौले-हौले बोलता है. दूसरे की आवाज ऊंची है, पर तल्ख नहीं. शायद ही रोजाना किसी से इनका संवाद होता है. रोजाना ये ही बोलते हैं. पल भर में अपने होने का अहसास करा कर चले जाते हैं. एक तो महीने में एक दिन, सूरज के उजाले में दिखता है.
हालांकि, महीने में एक रोज ऐसा जरूर होता है, जब मोहल्ले के दूसरे लोग भी बोलते हैं. तब मोहल्ले की आवाज ऊंची ही नहीं तल्ख भी होती है. वह दिन होता है, जब इन्हें महीने का मेहनताना दिया जाता है. एक का मेहनताना 40 रुपये महीने है. दूसरे का 50 रुपये. इन्हें पैसा देने से पहले कुछ आम आवाजें हर बार सुनाई देती हैं. कमोबेश हर घर की एक सी होती हैं.
जैसे- ‘रात में तुम्हारी आवाज सुनाई नहीं देती. तुम तो सिर्फ पैसा लेते वक्त नजर आते हो. रात में मेरे घर के आगे तो तुम्हारी सिटी कभी नहीं सुनाई दी. तुम तो पोल पर ठक-ठक भी ठीक से नहीं करते. मैं तो देर रात आता हूं, तुम्हें कभी नहीं देखा…’ या फिर ‘तुम तो नागा बहुत करती हो. मेरे घर के सामने तुमने आज तक झाड़ू नहीं लगायी. चलो जरा पहले मेरा बरामदा साफ करो. ये कोने में झाड़-झंखाड़ है, इन्हें भी तो देखा करो…’
काम की उम्मीद और मेहनताने में रिश्ता तो होना चाहिए. है न? अगर हिसाब लगायें, तो इन दोनों का मेहनताना रोजाना सवा से पौने दो रुपये के बीच बैठता है. डेढ़ न दो! अब यहां यह गिनाने की जरूरत नहीं कि रोजाना दो रुपये में हम क्या करते हैं. या हमारी जिंदगी की जरूरत पूरा करने में 50 रुपये कितना काम आता है. जहां चालू चाय भी पांच रुपये से कम में मयस्सर नहीं, उस बाजार में इनका महीने भर का मेहनताना बमुश्किल एक वक्त का खाना मुहैया करा पाता होगा? हमारे बटुए से निकले पैसे की बाजार में यही कीमत है.
ये दोनों आते हैं. मोहल्ले में घूमते हैं. अपना काम कर वापस चले जाते हैं. हममें से कितने इनका नाम जानते हैं? कहां रहते हैं, ये जानते हैं? नेपाल में भूकंप के बाद इनके परिवारीजन किस हाल में हैं? इनके घर का क्या हुआ? जिंदगी कैसे चल रही? ये बातें हमारी सोच से भी परे हैं.
ठीक इसी तरह, हममें से किसी की इस बात में दिलचस्पी नहीं कि इनके बच्चे इसलिए स्कूल नहीं जा पा रहे, क्योंकि इनके पास कोई कार्ड नहीं है. शायद किसी ने कोशिश भी नहीं की. हमारे लिए इनका होना मायने नहीं रखता. फिर भी ये रोजाना आते हैं. ठक-ठक करते हैं. सिटी बजाते हैं. गंदगी इकट्ठा करते हैं. शिकायत भी नहीं करते.
अब जरा कल्पना करें- इनकी जगह कोई ऐसी एजेंसी काम करने लगे जो ‘सिक्योरिटी’ का धंधा करती है. या ‘वेस्ट’ को ‘ग्रीन’ करने का दावा करनेवाली किसी कंपनी का हरे रंग में रंगा ठेला रोजाना कूड़ा लेने आने लगे. हमसे ये कितना पैसा लेंगी और हम इन्हें कितना राजी-खुशी दे देंगे? क्या वे 40-50 ही लेंगी? हमारी उम्मीदों के सारे काम कर जायेंगी? सोच कर देखने में कोई हर्ज नहीं…

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