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मोदी को कुछ अलग करने की जरूरत
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया वर्ष 2015 वह वर्ष रहा, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले कई दशकों के भारत के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में अपनी स्थिति को मजबूती प्रदान की. हमने इंदिरा गांधी के बाद, अथवा यों कहें कि संभवतः नेहरू के पश्चात, किसी अन्य नेता को राष्ट्रीय स्तर पर […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
वर्ष 2015 वह वर्ष रहा, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले कई दशकों के भारत के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में अपनी स्थिति को मजबूती प्रदान की. हमने इंदिरा गांधी के बाद, अथवा यों कहें कि संभवतः नेहरू के पश्चात, किसी अन्य नेता को राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी लोकप्रियता तक पहुंचते नहीं देखा है.
मोदी महान परिवर्तन लाने के वादे के बल पर सत्ता में आये, मगर उन परिवर्तनों में से लगभग कोई भी घटित नहीं हो सका है. इतना जरूर है कि बड़े स्तर के भ्रष्टाचारी घोटालों की कहानियां पहले से कम हैं. मगर जिस भारत पर मोदी शासन कर रहे हैं, वह किन अन्य प्रकारों से मनमोहन सिंह या उनके पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों द्वारा शासित भारत से अलग है?
पद ग्रहण करने के बाद मोदी ने जो मुख्य नीतियां लागू कीं, उन्होंने पर्यवेक्षकों को भ्रमित ही किया है. क्या ‘स्वच्छ भारत’ शौचालयों के निर्माण की दशकों पुरानी योजनाओं का नया नामकरण है? यदि ऐसा है, तो यह ठीक है. लेकिन प्रधानमंत्री झाड़ू लेकर सड़कें भी बुहारते रहे हैं, तो क्या इसका अर्थ यह लगाया जाये कि स्वच्छ भारत का मतलब भारतवासियों को साफ-सुथरा रहने के लिए प्रोत्साहित करना है? यदि ऐसा ही है, तो क्या सामाजिक सुधार लाना सरकार का काम है?
यह दलील दी जा सकती है कि परिवार नियोजन को प्रोत्साहन देकर, नशाबंदी लागू कर, बालिकाओं की हत्या का निवारण और ऐसी अन्य चीजें करते हुए सरकारें सामाजिक सुधार करती रही हैं. मगर स्वच्छता तो उक्त पैमाने पर इतना नीचे है कि यह समझना कठिन है कि नेक-नीयत के बावजूद, क्यों इस पर इतने अधिक प्रयत्न तथा राजस्व लगाये जा रहे हैं.
देश की अर्थव्यवस्था मनमोहन सिंह युग के दस सालों की औसत आर्थिक विकास दर से थोड़े निचले स्तर पर बढ़ रही है. मोदी ने कच्चे तेल की कीमतों के धराशायी होने का इस्तेमाल कर सरकारी आय-व्यय का लेखा-जोखा मजबूत किया और अब भारत राजकोषीय घाटे में कमी प्रदर्शित करने की ओर अग्रसर है. इसके अतिरिक्त बाकी अर्थव्यवस्था में तो सुस्ती ही छायी है. पूरे विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक तेज होने की हमारी अर्थव्यवस्था में किसी तेजी के बजाय मुख्यतः चीन की अर्थव्यवस्था में आ रही मंदी के आधार पर ही खड़ी है.
बड़े धूम-धड़ाके से लागू की गयी मोदी की बड़ी औद्योगिक नीति, ‘मेक इन इंडिया’ का प्रतीक चिह्न (लोगो) निस्संदेह उत्कृष्ट है, किंतु फिर भी निश्चित नहीं हुआ जा सकता कि आखिर यह नीति क्या है. रिजर्व बैंक के गवर्नर समेत अधिकतर विशेषज्ञ इस विचार को खारिज कर चुके हैं कि हम कोई खास विनिर्माण चीन से स्थानांतरित कर भारत ला सकते हैं.
यह घोषणा की गयी थी कि विश्व की सबसे बड़ी पटेल की प्रतिमा गुजरात में स्थापित की जायेगी. उसके बाद पता चला कि उसे चीनियों द्वारा बनाया जायेगा. जापानियों ने यहां बुलेट ट्रेन चलाने के लिए भारत को आसान शर्तों पर ऋण देने की पेशकश की है, लेकिन मेरी नजरों से किसी एक भी अर्थशास्त्री का कोई ऐसा विचार नहीं गुजरा है, जो 94,000 करोड़ रुपयों की इस परियोजना का समर्थन करता हो.
विदेश नीति के क्षेत्र में मोदी ने दो बड़े काम किये. उन्होंने विदेशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों को जोरदार सम्मेलनों से एकजुट किया है. इन सम्मेलनों का उद्देश्य क्या है, इस पर संभवतः अरसे बाद ही कोई तसवीर उभर सकेगी. जहां तक पकिस्तान का सवाल है, पिछले 18 महीनों में यह सरकार नौ बार अपनी स्थिति बदल चुकी है.
राजनयिकों समेत किसी को भी यह नहीं पता कि पाकिस्तान को लेकर हमारी नीति क्या है, या कोई नीति है भी कि नहीं. इस पल तो हम बातचीत करते नजर आ रहे हैं, मगर किसी को नहीं मालूम कि क्यों हम पिछले महीने बातचीत नहीं कर रहे थे अथवा यह कि क्या हम अगले महीने भी इसे जारी रखेंगे. मोदी ने चुनावी अभियान के दौरान कुछ ऐसी बातें कहीं, जो विनम्रतापूर्वक कहा जाये तो असत्य ही साबित हुईं. मसलन, उनका यह दावा कि वे कालाधन वापस लायेंगे और भ्रष्टाचार के आरोपितों का बचाव नहीं करेंगे.
अपने उपर्युक्त प्रदर्शन के बाद भी मोदी की ऊंची विश्वसनीयता बरकरार है और वे लोकप्रिय बने हुए हैं. उनको लेकर किये गये किसी भी जनमत सर्वेक्षण में उन्हें 75 प्रतिशत अंक मिल जाते हैं, जिसका अर्थ यह है कि उनको हासिल समर्थन का अधिकतर गैरभाजपा मतों से आता है, क्योंकि राष्ट्रीय मतदान में पार्टी का हिस्सा केवल 32 फीसदी ही था. वे एक मजबूत, नेकनीयत और ईमानदार नेता समझे जाते हैं.
मोदी ने बिहार के चुनाव प्रचार में अपनी इस लोकप्रियता का आक्रामक इस्तेमाल किया और पार्टी को वह सब कुछ दिया, जो उनके पास था, मगर पार्टी हार गयी. इस अभियान में उन्होंने अपने भाषणों में जिस कड़वाहट का लगातार प्रदर्शन किया, उसने यह तय कर दिया कि सरकार को काम करने देने में प्रतिपक्ष कोई भी फायदा नहीं देख सकता.
उक्त मोरचे पर गांधी परिवार पूरे साल घटिया प्रदर्शन करता रहा. उनके पास अपने पुनरोदय की कोई भी कारगर रणनीति नहीं है और वे अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने हेतु संसद का कामकाज बाधित करने जैसी चालों का सहारा ले रहे हैं. यह एक चाल तो हो सकती है, मगर मोदी के विजन का एक स्पष्ट विकल्प प्रस्तुत करने जैसी एक रणनीति के अभाव में यह अधूरी ही रहेगी.
बिहार और गुजरात में अपनी पार्टी के कमतर प्रदर्शन के बाद भी मोदी इस पल के नायक बने हुए हैं, एक ऐसा व्यक्ति, जिस पर एक अरब भारतीयों ने अपनी उम्मीदें टिका रखी हैं. कश्मीर में उनके गंठबंधन सहयोगी तथा एक अत्यंत अनुभवी राजनीतिज्ञ मुफ्ती मुहम्मद सईद ने यह भविष्यवाणी की है कि मोदी एक दशक तक सत्तासीन बने रहेंगे.
यदि ऐसा होता है, तो मोदी के पहले 18 महीनों की कोई खास अहमियत नहीं रह जाती है. 2008 में बराक ओबामा के अमेरिकी राष्ट्रपति चुने जाने पर मीडिया मुगल रुपोर्ट मर्डोक ने उनसे कहा था कि अतीत के राष्ट्रपतियों द्वारा लाये गये कोई भी अहम बदलाव उनके कार्यकालों के प्रथम छह महीनों के दौरान ही आ सके थे.
उसके बाद वे सब व्यवस्था द्वारा अपने आगोश में समेट लिये जाने का प्रतिरोध नहीं कर सके और फिर उनमें कोई भी बड़ा बदलाव लाने का सामर्थ्य ही नहीं रहा. यदि सचमुच ऐसा है, तो मोदी द्वारा अपनी लोकप्रियता की ऊंचाई बहाल रखने के लिए उन छिटपुट और अपरिपक्व कार्यक्रमों से अलग हट कर कुछ अन्य रास्तों की तलाश करनी होगी, जिनका इस्तेमाल एक नया भारत गढ़ने के लिए उन्होंने अब तक किया है.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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