अमेरिकी महिला कार्यकर्ता ‘ग्लोरिया स्टेमन’ ने एक बार कहा था कि ‘हमने बेटियों को तो बेटों की तरह बड़ा करना शुरू किया है. लेकिन, बहुत कम लोगों में ऐसी बहादुरी है, जो बेटों को बेटियों की तरह बड़ा करे.’ उनका यह कथन आज के मानव समाज पर सटीक बैठता है. यदि लड़कियों जैसी संवेदनशीलता, विनम्रता व सहयोग की भावना लड़कों में पैदा हो जाये, तो आधी आबादी की आधी चिंताएं खत्म हो जायेंगी.
लड़कियों को तमीज सिखाने की बात करनेवाले पितृसत्तात्मक समाज में लड़कों की उद्दंडता को खुलेआम प्रोत्साहित किया जाता है. इसका नतीजा है कि बड़ी संख्या में किशोर व युवा पथ-विमुख हो रहे हैं. दुख तो तब होता है, जब इन्हीं में से कुछ दरिंदगी पर उतर आते हैं और मानवता, नैतिकता व पारिवारिक मूल्यों की तिलांजलि देकर कुकृत्य के भागी बन जाते हैं. हमारे समाज की न जाने कितनी ही लड़कियां प्रतिदिन इनकी हैवानियत में हवन हो जाती हैं. कुछ मामलों पर तो प्रकाश पड़ता है, पर अधिकतर अंधेरे में ही गुम हो जाती हैं. बात राजधानी दिल्ली की हो या देश के अन्य शहरों की, स्थिति कमोबेश यही है. महिला सुरक्षा किसी चुनौती से कम नहीं है.
कुत्सित मानसिकता से ग्रसित मुट्ठी भर लोगों ने समाज की बहू-बेटियों का जीना मुहाल कर दिया है. सवाल यह भी है कि आखिर कुकर्म करनेवाले लोग आखिर कहां से आते हैं और उन्हें पनाह कौन दे रहा है? निश्चय ही किशोरावस्था में बेटों को अनावश्यक प्यार और घर से मिलनेवाली बेवहज की छूट कालांतर में गलत मार्ग पर ले जाता है. बेहतर होगा कि हमारा समाज ग्लोरिया स्टेमन के उक्त कथन के अनुसार, बेटों का पालन-पोषण करना शुरू कर दें, तो शायद लड़के, लड़कियों के जीवन संघर्ष को समझ पायेंगे.
सुधीर कुमार, गोड्डा