सुप्रीम कोर्ट ने इस साल जुलाई महीने में जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 62(5) पर विचार करते हुए निर्णय दिया था कि ‘अगर जेल में बंद नागरिक को मतदान करने का अधिकार नहीं है, तो स्वाभाविक तौर पर उन्हें चुनाव लड़ने का भी अधिकार नहीं दिया जा सकता’. यह एक तार्किक फैसला था, लेकिन राजनीतिक दल कोर्ट के इस निर्णय से सहमत नहीं थे.
अपनी असहमति दर्ज करते हुए संसद ने जनत्न प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करते हुए एक अनुलग्नक प्रावधान जोड़ दिया, जो इस धारा के नियम या किसी कोर्ट के फैसले के बावजूद जेल में या पुलिस हिरासत में बंद व्यक्ति को चुनाव लड़ने का अधिकार देता है. अब सुप्रीम कोर्ट ने भी इस संविधान संशोधन पर अपनी मुहर लगाते हुए, जेल में बंद व्यक्तियों के चुनाव लड़ने का रास्ता साफ कर दिया है. ऐसा करके सुप्रीम कोर्ट ने कानून बनाने की संसदीय श्रेष्ठता के सिद्धांत का ही पालन किया है. ऐसा न करना, विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव का सबब बन सकता था.
सुप्रीम कोर्ट इससे पहले भी अपने आदेशों को पलटनेवाले संविधान संशोधनों पर ऐसा रुख अपना चुका है. सवाल कोर्ट के फैसले का नहीं, विधायिका की मंशा का है. ऐसे माहौल में जब राजनीति को भ्रष्टाचार और अपराधी तत्वों से मुक्त करने की मुहिम जोर पकड़ रही है, जेल में बंद आरोपितों को चुनाव लड़ने की छूट देना जनत्नभावना के अनुकूल नहीं कहा जा सकता है. राजनीतिक दलों की यह दलील एक स्तर पर ठीक हो सकती है कि इस कानून का राजनीतिक रंजिश के तहत दुरुपयोग भी किया जा सकता है, लेकिन एक तथ्य यह भी है कि संगीन आरोपों में जेल में बंद किसी व्यक्ति को चुनाव लड़ने की छूट देना राजनीति को स्वच्छ बनाने की पूरी मुहिम को कमजोर करेगा.
अगर ऐसे लोग आखिरकार दोषसिद्ध पाये जाते हैं, तो जनत्नप्रतिनिधि के तौर पर उनके फैसलों को किस तरह उचित ठहराया जा सकेगा? आरोपितों को चुनाव लड़ने की छूट देना मर्ज से कहीं खतरनाक दवा है. अगर राजनीतिक दलों को सचमुच गेहूं के साथ घुन के पिसने की चिंता है, तो उन्हें घुन को गेहूं से अलग करने का तंत्र और क्षमता विकसित करनी चाहिए. क्योंकि आखिर लोकतंत्र का जायका इस गेहूं के कारण ही बिगड़ रहा है.