कुछ लोग सत्ता से प्राप्त शक्तियों का वाजिब इस्तेमाल करते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनको पता ही नहीं होता कि उन्हें करना क्या है? ऐसे दिग्भ्रमित लोगों का फायदा उठाते हैं नौकरशाह. नेताओं और नौकरशाही में बेहतर समन्वय से देश में कई उल्लेखनीय कार्य हुए हैं, पर इन दोनों की मिलीभगत ने ढेरों कारगुजारियों को भी जन्म दिया है. झारखंड में तो ऐसे अनेक ‘कांड’ हैं.
यह अक्सर होता है कि नेताओं की नासमझी का फायदा नौकरशाही को मिल जाता है. पर यह बहुत कम होता है कि कोई मंत्री या नेता किसी बात को समझ नहीं रहा हो, तो नौकरशाह उसको उचित स्थिति से अवगत करायें. और, गलत कदम न उठाने की राय दें. एक तो झारखंड में पंचायती संस्थाएं पहले से ही बेहद कमजोर स्थिति में हैं, ऊपर से अगर सरकार और उसके मंत्री ही इनकी जड़ें काटने पर उतारू हो जाएं, तो फिर इन्हें कौन बचा सकता है? संदर्भ है, अखबार में छपी खबरत्न ‘झारखंड के कृषि मंत्री योगेंद्र साव पंचायतों को दी गयी शक्तियां वापस लेना चाहते हैं.’ आजाद भारत में लोकतंत्र की मजबूती का सपना देखनेवाले महात्मा गांधी ने पंचायतीराज व्यवस्था पर खास जोर दिया था.
केंद्र की सत्ता में आयी लगभग सभी सरकारों ने पंचायती राज को मजबूत करने की दिशा में कुछ न कुछ काम किया. बिहार, प बंगाल, उप्र, मप्र, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान आदि कई राज्यों में सशक्त पंचायती संस्थाएं बेहतर काम कर रही हैं. इसमें कोई संशय नहीं कि अंतिम व्यक्ति तक विकास की किरण पहुंचाने का सही माध्यम पंचायती संस्थाएं ही हैं. केवल भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर या काम नहीं हो रहा यह कह कर कोई सरकार या मंत्री अपना पल्ला नहीं झाड़ सकता. भ्रष्टाचार से आज कौन-सा विभाग अछूता है? तो क्या सारे विभागों को बंद कर दिया जाये?
समस्या की पहचान करने के साथ ही इसका समाधान भी ढूंढ़ना होगा. यह तय बात है कि पंचायतीराज व्यवस्था को दरकिनार करके कोई भी सरकार बेहतर काम नहीं कर सकती. इसकी अनदेखी, जनता की अनदेखी है. होना तो यह चाहिए कि इसकी कमियों को दूर कर बेहतर प्रणाली विकसित करने के उपाय किये जाएं. ताकि आम आदमी रोजमर्रा की जद्दोजहद के लिए जिला मुख्यालयों की दौड़ लगाने से बच सके.