पटना के एतिहासिक गांधी मैदान के आवंटन के लिए राज्य सरकार प्रोटोकॉल बनाने वाली है. सरसरी तौर पर इस पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इसके पीछे आतंकी खतरे से सुरक्षा और गांधी मैदान को साफ-सुंदर बनाये रखने का तर्क है.
लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दल, संगठन और सामाजिक संस्थाएं अपने विचार, कार्यक्रम और नारे को लोगों तक पहुंचाने के लिए रैली, धरना-प्रदर्शन का आयोजन करते रहे हैं. लेकिन, आबादी बढ़ने के साथ ही जिस तरह से शहरों में विशिष्ट किस्म की नगरीय समस्याएं बढ़ रही हैं, उसमें रैलियों के प्रबंधन का भी सवाल प्रमुखता से उभरा है. सड़कों पर ट्रैफिक का भार बढ़ रहा है और गाड़ियों की बढ़ती संख्या के कारण सड़कें सिकुड़ती जा रही हैं. इसलिए बड़े शहरों में रैली, धरना-प्रदर्शन और जुलूस का आयोजन एक नये किस्म की चुनौती है.
हाल के दिनों में आतंकी हमले का एक नया खतरा भी मंडराने लगा है. 27 अक्तूबर को हुंकार रैली में आतंकियों द्वारा सीरियल ब्लास्ट कर दहशत फैलाने की कोशिश के बाद रैलियों में सुरक्षा व्यवस्था सबसे लिए चिंता का विषय है. लेकिन, क्या प्रोटोकॉल के तहत गांधी मैदान के आवंटन की प्रक्रिया को दुरूह और महंगा बना देना इसका एकमात्र हल है? नये प्रोटोकॉल के तहत अब रैली करने वालों को दो-तीन दिन पहले से गांधी मैदान का आवंटन कराना होगा. सुरक्षा की व्यवस्था भले ही राज्य सरकार करेगी, लेकिन इस पर आनेवाला सारा खर्च रैली करनेवालों को वहन करना होगा.
रैली में आनेवाले एक-एक व्यक्ति की जांच होगी. गांधी मैदान को साफ-सुथरा कर पुन: प्रशासन को लौटाना होगा. इसकी चहारदीवारी को भी और ऊंचा करने का प्रस्ताव है. बड़े दल तो भारी भरकम खर्च उठा सकते हैं, लेकिन छोटे दल व संगठन क्या करेंगे? इसके अलावा गांधी मैदान पटना के आम लोगों के घूमने, टहलने और गरीबों के लिए गरमी के दिनों में रात बिताने का भी आश्रय स्थल है. कहीं रैली के दौरान सुरक्षा के नाम पर उनकी आजादी पर अंकुश न लग जाये. ऐसे में नये प्रोटोकॉल से जुड़ी आशंकाओं की धुंध साफ करने की जरूरत है. इसे अंतिम रूप देने पहले राजनीतिक दलों के साथ-साथ नागरिक समाज से भी राय ली जानी चाहिए.