।।कमल नयन चौबे।।
(जूनियर फेलो, नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी)
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरदार वल्लभभाई पटेल की ढाई हजार करोड़ की लागतवाली मूर्ति लगाने का फैसला किया है. उनका दावा है कि ऐसा करके वे कांग्रेस द्वारा उपेक्षित एक राष्ट्रीय नेता का सम्मान कर रहे हैं. वे यह भी मानते हैं कि देश को ‘वोट बैंक के सेकुलरवाद’ के बजाय ‘पटेल के सेकुलरवाद’ की जरूरत है. असल में, राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं में पटेल ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सबसे ज्यादा आकर्षित करते रहे हैं, क्योंकि वे हिंदू धर्म की ओर रुझान रखते थे. पटेल द्वारा विभाजन के बाद मुसलिमों के संदर्भ में दिये गये कुछ बयान और सोमनाथ मंदिर बनवाने में उनकी भूमिका के कारण भी वे संघ को अपने करीब लगते हैं. संघ द्वारा पटेल को अपनाने की चाह का आलम यह है कि उसके द्वारा आगे बढ़ाये गये दो नेताओं ने खुद को उनकी तरह ‘लौह पुरुष’ कहलवाना पसंद किया. पहले आडवाणी और अब मोदी खुद को पटेल जैसे दृढ़, संकल्पवान और राष्ट्रभक्त दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन क्या सच में संघ पटेल पर अपना दावा ठोक सकता है? क्या पटेल की हिंदू धर्म के प्रति खुले रुझान के कारण उन्हें संघ की विचारधारा के करीब माना जा सकता है? क्या पटेल की धर्मनिरपेक्षता और नेहरू की धर्मनिरेपक्षता में इतना अंतर है कि एक को अपनाने के लिए दूसरे को छोड़ना पड़े? क्या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मोदी पटेल की विरासत का दावा कर सकते हैं?
इतिहास कहता है, पटेल संघ के हितैषी नहीं, बल्कि गांधी के पक्के अनुयायी थे. गृह मंत्री के रूप में उन्होंने ही गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगाया था और उसे गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार माना था. यद्यपि विभाजन के बाद उन्होंने पाकिस्तान के निर्माण में सहयोग देनेवाले कुछ मुसलिम अभिजनों के बारे सार्वजनिक सभा में तीखी टिप्पणी की थी. लेकिन उन्होंने बतौर गृह मंत्री हमेशा ही सेकुलर ताने-बाने के भीतर काम किया और सुनिश्चित किया कि हिंदुत्ववादी अल्पसंख्यकों को परेशान न करें. इस लिहाज से पटेल संघ और भाजपा की राजनीति से कोसों दूर खड़े हैं और अधिकांश मौकों पर उनकी राजनीति के विरुद्ध हैं. इसलिए सांप्रदायिक राजनीति करने वाले ‘बड़े सरदार’ आडवाणी और ‘छोटे सरदार’ मोदी द्वारा खुद को उनके जैसा दिखाने की कोशिश न सिर्फ हास्यास्पद है, बल्कि ऐतिहासिक तथ्यों के साथ क्रूर मजाक भी है.
यद्यपि नेहरू और पटेल में कई मतभेद थे, लेकिन पटेल जब तक जीवित रहे, दोनों ने एक-दूसरे के पूरक के रूप में काम किया. पटेल की तुलना में नेहरू राज्य के सेकुलर स्वरूप के बारे में ज्यादा जागरूक थे. वे यह नहीं चाहते थे कि राज्य या सरकार का कोई अंग सांप्रदायिक ताकतों के प्रति हमदर्दी रखे या किसी धर्म के प्रतीकों को बढ़ावा दे. पटेल ने कई दफा, मसलन सोमनाथ मंदिर निर्माण, धार्मिक प्रतीकों को नकारने के बजाय उन्हें राष्ट्रीय पुनर्जागरण से जोड़ कर देखा. लेकिन गृह मंत्री रहते उन्होंने सेकुलर मानकों को नहीं छोड़ा. इसलिए अजीब है कि दंगों के समय उदासीन रवैया रखने वाले नेता उनकी विरासत का दावा करें.
चुनावी राजनीति के हिसाब से पटेल की मूर्ति लगाना ‘पटेल’ वोटों को गोलबंद करने और खुद को पटेल जैसा साबित करने की कवायद है. यह कोशिश इसलिए भी हास्यास्पद है, क्योंकि पटेल ने समर्थन होने के बावजूद प्रधानमंत्री पद के लिए कोई जोड़-तोड़ नहीं की. लेकिन मोदी अहं और दिखावे के साथ पिछले कई वर्षो से खुद को एकमात्र विकल्प के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं. पटेल की विनम्रता और मोदी की राजनीति दो अलग-अलग ध्रुव की तरह है.
इस पूरी परिघटना में एक अजीब बात यह भी हुई कि कांग्रेस ने नये सिरे से पटेल पर अपना दावा ठोका. दरअसल, कांग्रेस ने आजादी के बाद नेहरू-गांधी परिवार की तुलना में किसी अन्य नेता को तरजीह नहीं दी. पटेल और दूसरे राष्ट्रीय नेताओं की उपेक्षा के कारण ही दूसरी राजनीतिक शक्तियों को उन पर कब्जा जमाने का मौका मिला. विडंबना है कि मायावती द्वारा लगायी गयी मूर्ति-पार्को का विरोध करनेवाले नेता और मीडिया पटेल की मूर्ति पर चुप हैं. इस बार कहीं भी यह चर्चा नहीं हुई कि ढाई हजार करोड़ रुपये से कितने स्कूल खुल सकते हैं.
असल में, आज जरूरत इस बात की है कि राष्ट्रीय नेताओं का समुचित सम्मान किया जाये. इसके लिए बड़ी-से-बड़ी मूर्ति लगाने के बजाय ज्यादा सृजनात्मक उपायों को अपनाने की आवश्यकता है, जो कि देश की गरीब जनता के हितों के अनुरूप हो. नेताओं के विचारों के बारे में ज्यादा वैचारिक स्पष्टता रखने की भी आवश्यकता है. ऐसा नहीं होने पर उनके विचारों और विरासत का बिल्कुल ही गलत और उल्टे तरीके से प्रयोग हो सकता है.