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भटकती राजनीति!
एक मशहूर कहावत है- गड़े मुर्दे उखाड़ना. हमारे देश में इस कहावत को न सिर्फ चरितार्थ करने की होड़ लगी है, बल्कि इस होड़ का सिलसिला भी बनता जा रहा है. इस सिलसिले से सियासी स्वार्थ साधने की कोशिश में जान-माल के नुकसान के साथ देश के सामने जरूरी सवालों को भी हाशिये पर धकेला […]
एक मशहूर कहावत है- गड़े मुर्दे उखाड़ना. हमारे देश में इस कहावत को न सिर्फ चरितार्थ करने की होड़ लगी है, बल्कि इस होड़ का सिलसिला भी बनता जा रहा है. इस सिलसिले से सियासी स्वार्थ साधने की कोशिश में जान-माल के नुकसान के साथ देश के सामने जरूरी सवालों को भी हाशिये पर धकेला जा रहा है.
कर्नाटक में अठारहवीं सदी के शासक टीपू सुल्तान की जयंती मनाने और उसके विरोध के बीच कुछ अहम बिंदुओं को दोनों पक्षों ने दरकिनार कर दिया है.
एक सवाल यह है कि क्या एक राजा का जन्मदिन का उत्सव एक लोकतांत्रिक सरकार के द्वारा आयोजित किया जाना उचित है? क्या किसी ऐतिहासिक व्यक्तित्व का मूल्यांकन आज की मान्यताओं और मानदंडों के आधार पर किया जाना चाहिए? क्या टीपू सुल्तान जैसे उत्तर-मध्यकालीन शासक को तत्कालीन तथ्यों के संदर्भ से काट कर देखा जा सकता है?
इतिहास एक जटिल परिक्षेत्र है और उसका अध्ययन उसकी सैद्धांतिकी की मर्यादा के अंतर्गत ही होना चाहिए. दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है और एक-के-बाद-एक ऐसे मसले सामने आ रहे हैं, या यों कहें कि सामने लाये जा रहे हैं, जो एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के लिए हितकर नहीं हैं.
भारत के विधान के आधार पर उसके विकास के आदर्श को प्राप्त करने के राज्य के संकल्प तथा नागरिकों की आशाओं और आकांक्षाओं के लिए यह स्थिति शुभ नहीं है. ऐसे विवादों से समाज में असहिष्णुता और अविश्वास का वातावरण तो बनता ही है, साथ ही सामाजिक-आर्थिक विकास की धार भी टूटती है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी ब्रिटेन यात्रा के दौरान स्पष्ट शब्दों में कहा है कि असहिष्णुता की कोई भी घटना बर्दाश्त नहीं की जायेगी और उन्हें कानूनी तरीके से रोका जायेगा. भारत में भी प्रधानमंत्री कई बार सहिष्णुता, शांति और सौहार्द के प्रति अपनी प्रतिबद्धता अभिव्यक्त कर चुके हैं.
‘सबका साथ-सबका विकास’ की अपनी प्राथमिकता को भी रेखांकित कर चुके हैं. पर, यह असुविधाजनक सच्चाई है कि प्रधानमंत्री के अपने ही दल भारतीय जनता पार्टी के नेता और उनके समर्थक हिंदुत्व संगठनों द्वारा समाज में अशांति फैलाने और बेमानी मुद्दों को उछालने की कोशिशें लगातार होती रही हैं.
इन तत्वों पर प्रधानमंत्री नियंत्रण पाने में असफल रहे हैं. कर्नाटक के मसले में केंद्र सरकार ने आधिकारिक तौर पर किसी तरह का हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया है, पर भाजपा नेता बयानबाजी से बाज नहीं आ रहे हैं. सही है कि असहिष्णुता और अशांति की घटनाएं विपक्षी दलों द्वारा शासित प्रदेशों में भी हो रही हैं, पर ऐसा नहीं है कि उन राज्यों में खूब अमन-चैन है, जहां भाजपा या राजग की सरकारें हैं. प्रधानमंत्री के नेतृत्व में केंद्र ने कई नीतियां लागू की हैं, पर जमीनी स्तर पर उनके वांछित परिणाम नहीं आ सके हैं.
सवाल यह उठता है कि क्या ऐसे विषाक्त वातावरण में विकास और समृद्धि के लक्ष्य को पाया जा सकता है? देश के कई हिस्सों से किसानों की आत्महत्या की खबरें लगातार आ रही हैं. कृषि संकट अब भी बरकरार है और इस वर्ष के कमजोर मॉनसून ने चिंताएं बढ़ा दी है. उद्योग जगत में भरोसा तो पैदा हुआ है, पर विकास के स्थायित्व को लेकर वे निश्चिंत नहीं हैं. रोजगार बढ़ाने के मामले में कोई उत्साहजनक प्रगति नहीं हुई है.
चुनावों में जन-जीवन को प्रभावित करनेवाले और आम लोगों को बेहतर जिंदगी देनेवाले मुद्दों पर चर्चा की जगह बेमतलब के ऐसे मसले उठ खड़े होते हैं, जो समाज को विभाजित करते हैं. अगर ऐसा ही चलता रहा तो, विकास तो दूर, अब तक की उपलब्धियां भी संभाली न जा सकेंगी. करीब एक पखवाड़े बाद जब देश की सबसे बड़ी चौपाल हमारी संसद अपनी बैठक करेगी, तो क्या वह इस माहौल में आरोप-प्रत्यारोप के शोर में डूब तो नहीं जायेगी!
जब सरकारें, संगठन और नेता ही महत्वपूर्ण मसलों से सरोकार नहीं रखना चाहते हैं, तब संसद और विधानसभाओं से कितनी उम्मीद रखी जाये! अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि वरिष्ठ नेता अपने संगठन और समर्थकों में शामिल उद्दंड तत्वों पर लगाम लगायें, जनता के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस करें और देश के विकास के लिए नीतियों और पहलों पर निर्णय लें. जनता की निगाहें अपने नेताओं के कामकाज पर हैं. उसमें असंतोष का बढ़ना राजनीतिक दलों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं होगा.
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