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।।एम जे अकबर।।(वरिष्ठ पत्रकार) चुनावी सर्वेक्षण अक्सर चुनाव से अधिक राय ही होते हैं. हालांकि, जो राजनेता इसे नजरअंदाज करता है, वह अपने जोखिम पर ही करता है. यह कोई नतीजा नहीं देता, वरना हमें उस विस्तृत और खर्चीले कार्यक्रम की जरूरत नहीं होती, जिसे चुनाव कहते हैं. सर्वेक्षण का नमूना भारत में आम चुनाव […]

।।एम जे अकबर।।
(वरिष्ठ पत्रकार)

चुनावी सर्वेक्षण अक्सर चुनाव से अधिक राय ही होते हैं. हालांकि, जो राजनेता इसे नजरअंदाज करता है, वह अपने जोखिम पर ही करता है. यह कोई नतीजा नहीं देता, वरना हमें उस विस्तृत और खर्चीले कार्यक्रम की जरूरत नहीं होती, जिसे चुनाव कहते हैं. सर्वेक्षण का नमूना भारत में आम चुनाव के दौरान बूथों पर उमड़नेवाली भीड़ के बनिस्बत अक्सर बेहद संकीर्ण होता है. यह हमारी संसदीय प्रजातंत्र में सीटों की संख्या के बारे में बहुत कम ही सही साबित होता है, जहां किसी खास प्रत्याशी की गुणवत्ता और व्यक्तिगत इतिहास जैसे विषयनिष्ठ तत्व किसी भी बड़ी भावना के उलटी लहर पैदा कर सकते हैं.

किसी भी सर्वेक्षण को पढ़ने का बेहतरीन तरीका इसे श्रृंखला में पढ़ना है. समय के साथ जिधर ‘जनमत’ घूम रहा होता है, यह ठीक उसी तरह बढ़ता है. इस निष्कर्ष पर यदि देखें, तो अक्टूबर के मध्य में टीवी चैनल सीएनएन-आइबीएन का सर्वेक्षण दिखाता है कि कांग्रेस और इसके गंठबंधन यूपीए का पतन जोर पकड़ चुका है.

कोई सरकार अपने जाने के बहुत पहले ही लड़खड़ाने लगती है. अगर यह फिसलन लगातार नहीं है, तो इसे एक विचलन मान कर खारिज कर सकते हैं. राजनीति के लोग समझते हैं कि यह मैदान ऊंच-नीच से भरा है, लेकिन अगर सी-सॉ (एक झूला) का एक सिरा अगर दो वर्षो से उठे ही नहीं, तो आप जान लेते हैं कि दो खिलाड़ियों में से एक के लिए खेल खत्म हो चुका है. पतन के पहले चरण में कांग्रेस का वोट एक दिशा में नहीं, बल्कि कई दिशाओं में गया. क्योंकि इसका संभावित विकल्प (यानी भाजपा) अपनी विश्वसनीयता के संकट से जूझ रही थी. इसने क्षेत्रीय दलों को यह मानने की ताकत दी कि एक गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपाई गंठबंधन केंद्र में सत्तासीन हो सकता है.

हाल ही में संपन्न हुए चुनावों ने, हालांकि भाजपानीत गंठबंधन की तरफ मतों के रुझान को बढ़ता दिखाया, भले ही राजग में शामिल दलों की संख्या में इजाफा नहीं हुआ है और इसके घटक दलों ने अपनी चुनावी संभावना को ज्यादा भुना लिया है. कमल के इर्द-गिर्द जमघट वैसे-वैसे बढ़ता जा रहा है, जैसे-जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आती जा रही है.

इसके दो कारण हैं. पहला, मतदाता अब भी किसी मजबूत केंद्रविहीन गंठबंधन के स्थायित्व को लेकर चिंतित है, जो केवल एक राष्ट्रीय दल दे सकता है. स्थायी शासन की जरूरत यह सुनिश्चित करती है कि क्षेत्रीय दल अपने मुख्य रण, यानी विधानसभा चुनाव में बेहतर कर सकें. उदाहरण के लिए, यूपी में मायावती की बसपा संसदीय चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करेगी. यह अंतर 30 फीसदी तक हो सकता है. दूसरे, भाजपा के अपने घर को दुरुस्त करने के साथ ही शंकालु वापस आने लगे हैं. जैसे, कर्नाटक का मामला लें. यहां कुछ ही महीने पहले भाजपा पांच संसदीय सीटों के बराबर सिमट कर रह गयी थी. अब यह वापसी कर रही है, और वर्तमान वोट शेयर को देखें, तो यह दस सीटों तक फैल चुकी है.

जिन राज्यों में भाजपा सत्ता में है, या अपने दम पर सत्ता में वापसी कर सकती है, वहां रुझानों का संगम है. कुछ महीने पहले ही अफवाहों की राजधानी दिल्ली में कयास लगाये जा रहे थे कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सत्ताविरोधी रुझान को सरकारी रेवड़ी बांट कर पलट दिया है. इसी तरह, यह भी चर्चा थी कि ज्योतिरादित्य सिंधिया मध्य प्रदेश में कांग्रेस को अप्रत्याशित नतीजे दिलवा सकते हैं और अजीत जोगी छत्तीसगढ़ में. सीएनएन-आइबीएन के सर्वेक्षण दिखाते हैं कि भाजपा ने अंतर को और बड़ा कर लिया है और शायद पूर्व की संभावना से अधिक सीटें जीत सकती है.

एक स्थायी नामवरी की तलाश में ही दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) की वाइल्ड कार्ड एंट्री हुई है. केजरीवाल ने मुसलिम वोटों को लुभाने के लिए वही किया है, जो बाकी पार्टियां करती हैं. उन्होंने भी उन इमामों के आगे घुटने टेके हैं, जो खुद को प्रभावी बताते हैं. अब इससे केजरीवाल को मदद मिलेगी या वह घायल होंगे, क्योंकि उनका यूएसपी (खासियत) ही यही था कि वह परंपरागत प्रारूपों को ध्वस्त करते हैं, जिसने चुनावी राजनीति को गंध में बदल दिया है. अगर वह मौलवियों के पास जा सकते हैं, तो हिंदू पुजारियों के पास क्यों नहीं? या, क्या वह भी मानते हैं कि मुसलिम वोटर अब भी मुल्लाओं के प्रभाव में हैं, जबकि हिंदू वोटर ऐसी बाध्यता को ठुकरा चुका है? केजरीवाल को मुसलिम विद्यार्थियों के साथ किसी विश्वविद्यालय का दौरा करना चाहिए, यदि उन्हें मसजिदों में घूमने से कुछ समय मिल गया हो.

चुनावी गणित में संप्रग के लिए संगीन समस्या स्पष्ट है. इसका केंद्रीय आधार ही कांग्रेस के घटते वोटों के साथ दरक चुका है. केंद्र कमजोर हो, तो परिधि पर के पटरे खिसकेंगे ही. सबसे अधिक बहिर्गमन युवाओं का हुआ है. मजेदार यह है कि युवा धर्म-जाति के परंपरागत चौखटों से निकल कर खुद को पारिभाषित कर रहा है. किसी भी विश्वविद्यालय का परिसर एक ऐसा खौलता कड़ाह है, जिसमें नये भारत का मसाला पक रहा है. अगर यह रुझान जनवरी के सर्वेक्षणों में भी बना रहा, तो आप अपने नजदीकी बुकी के पास जा सकते हैं और अगले आम चुनाव के नतीजों पर सुरक्षित दावं लगा सकते हैं. अपनी जीत के पैसे मई में इकट्ठा कीजिए. (अनुवाद : व्यालोक)

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