भारत में यह अकसर देखा जाता है कि योग्य नौकरशाहों को अपनी कार्यकुशलता की कीमत बार-बार के तबादलों या अनुशासनात्मक कार्रवाइयों से चुकानी पड़ती है. ऐसे में कई पूर्व नामी नौकरशाहों की सम्मिलित जनहित याचिका पर आये सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश को बड़े बदलाव का प्रस्थान बिंदु कहा जा सकता है. कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को शीर्ष नौकरशाहों के ट्रांसफर, पोस्टिंग, प्रोमोशन और उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई आदि की प्रक्रिया तय करने के लिए एक सिविल सर्विस बोर्ड बनाने का निर्देश दिया है.
निर्देशों में नौकरशाहों को निश्चित कार्यावधि देना भी शामिल है. विभिन्न मामलों में ऐसा देखा गया है कि नौकरशाही राजनेताओं के मौखिक आदेश पर काम करती है. ऐसे आदेशों के लिए राजनीतिक नेतृत्व को कटघरे में खड़ा करना मुश्किल होता है. राजनेताओं और नौकरशाही के रिश्ते को बदलने की क्षमता रखनेवाले एक अहम निर्देश में कोर्ट ने नौकरशाहों से अपने राजनीतिक आकाओं के मौखिक निर्देशों पर काम न करने को कहा है. रॉबर्ट वाड्रा-डीएलएफ विवाद से सुर्खियों में आये अधिकारी अशोक खेमका और खनन-माफिया पर कार्रवाई करके स्थानीय राजनीतिक सत्ता को नाराज करनेवाली दुर्गाशक्ति नागपाल को कर्तव्यनिर्वाह के क्रम में जो कुछ भुगतना पड़ा, उसके आलोक में सुप्रीम कोर्ट के इन दिशा-निर्देशों का महत्व समझा जा सकता है.
लेकिन, पिछला रिकार्ड कहता है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का अनुपालन गंभीरता से नहीं करती. मिसाल के लिए, प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार का एक पूरा खाका खींचा था. मगर, ज्यादातर राज्य-सरकारें अभी तक इस निर्देश पर अमल नहीं कर पायी हैं. दूसरी बात, खुद नौकरशाही के चरित्र से संबंधित है. ज्यादातर मामलों में राजनीतिक वरदहस्त हासिल करने के लिए नौकरशाह खुद ही राजनेता की हां में हां मिलाने को तैयार नजर आते हैं. तीसरे, भारत में अखिल भारतीय स्तर के उच्च पदस्थ नौकरशाहों की संख्या देश में मात्र 11 हजार है जबकि इनके अधीन काम करनेवाले निचले तबके की नौकरशाही की तादाद इससे कई गुना ज्यादा है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का निर्देश नौकरशाही के चरित्र में कितना और कब तक बदलाव ला पायेगा, यह कहना आसान नहीं है.