।।बृजेंद्र दुबे।।
(प्रभात खबर, रांची)
अखबारी भाषा में आज कल खबरों का टोटा है. फैलिन का चक्रवात कुछ ही दिन में खत्म हो गया. घपले–घोटालों की खबरों से अब जनता का मूड नहीं बन रहा है. महंगाई से भी लोगों ने यारी कर ली है. ले–देकर नक्सली थे, तो वे भी छिटपुट वारदात करके सिर्फ उपस्थिति का भान करवा पा रहे हैं. ऐसे में अखबारों और न्यूज चैनलों के सामने बिकाऊ खबरों का अकाल पड़ गया है. बिहार–झारखंड के चौक–चौपालों पर नरेंद्र मोदी भी बासी कढ़ी होते जा रहे हैं. गजोधर की मानें तो पटना की हुंकार रैली में नरेंद्र मोदी क्या बोलेंगे इस पर उत्सुकता कम है.
लोगों की उत्सुकता तो इसमें है कि नीतीश कुमार रैली से पहले भाजपा को कौन–सा नया धोबिया पछाड़ देते हैं. गजोधर ने कहा, भैया लगता है कि इन दिनों चौंकाऊ खबरों का अकाल पड़ गया है. तभी तो 2014 के आम चुनाव को लेकर टीवी चैनलों पर सर्वे की बाढ़ आ गयी है, तो अखबारों में भी किसी न किसी बहाने मोदी–राहुल छाये हैं. कोई नरेंद्र मोदी की लहर के दावे कर रहा है तो कोई कहता है कि कांग्रेस फिर से दिल्ली की सत्ता पर काबिज होगी. सबके अपने–अपने तर्क हैं. सारे चैनलों के सर्वे में तमाम अगर–मगर के साथ एक बात साफ है कि चुनाव बाद किसी को बहुमत नहीं मिलने वाला. तो आप ही बताइए.. इसमें नया क्या है? चुनाव के बाद या तो भाजपा की सरकार आयेगी, या कांग्रेस की. अगर दोनों में से किसी की सरकार नहीं बनीं, तो क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व में कोई न कोई बैसाखी सरकार बन ही जायेगी.
मैं कुछ बोलूं, गजोधर फिर चालू- यह तो हम भी जानते हैं कि अगर बुआ के मूछें होतीं, तो हम उनको चाचा कहते. इनको नहीं पता, बिहार-झारखंड में कैसे वोट दिया जाता है, कौन किसको वोट डालता है, अकेले में भी किसी से नहीं बताता. चैनल वाले हजार-दो हजार लोगों से बात करके (पता नहीं बात करते भी हैं कि नहीं) कैसे जान लेते हैं कि फलां पार्टी सत्ता में आ रही है, फलां का तंबू उखड़ रहा है. मैंने गजोधर से कहा, तुम काहे दुखी होते हो- आखिर न्यूज चैनलों और अखबारों को भी तो समय के साथ चलना है. इतना सुनते ही गजोधर खिलखिला पड़ा.. ठीक कहा आपने.
हमारे गांव-जंवार में तो बड़े-बुजुर्ग से लेकर बच्चे तक बता सकते हैं कि कौन किस पार्टी के लिए काम करता है. मैं कुछ बोलूं, गजोधर दार्शनिक अंदाज में आ चुका था. बोला- क्या यह बड़ी खबर नहीं बन सकती कि दहेज के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन चलाया जाये? गरीब बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले, इसके लिए अभियान शुरू करके लोगों को नहीं जोड़ा जा सकता. मंदिर-मसजिद से ऊपर उठ कर लोग इंसानियत के लिए काम करें, क्या इसके लिए खबरें नहीं लिखी जानी चाहिए. जात-पांत का भेद मिटे क्या इस पर खबर चलाने की जरूररत नहीं है? मैं गजोधर को ताकता रह गया. और गजोधर था कि एकदम रेस हुआ जा रहा था.