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सत्ता के अंतर्विरोधों का टकराव

पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार बिहार चुनाव सिर्फ ढाई दशक की राजनीति का उलटफेर नहीं देख रहा है, बल्कि विचारधाराओं का टकराव भी दिख रहा है. इसमें एक तरफ केंद्र सरकार है, तो दूसरी तरफ क्षेत्रीय राजनीति करनेवाले लालू और नीतीश. एक तरफ विकास का वह मंत्र है, जिसे मनमोहन सिंह के बाद नरेंद्र मोदी […]

पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
बिहार चुनाव सिर्फ ढाई दशक की राजनीति का उलटफेर नहीं देख रहा है, बल्कि विचारधाराओं का टकराव भी दिख रहा है. इसमें एक तरफ केंद्र सरकार है, तो दूसरी तरफ क्षेत्रीय राजनीति करनेवाले लालू और नीतीश. एक तरफ विकास का वह मंत्र है, जिसे मनमोहन सिंह के बाद नरेंद्र मोदी ने अपनाया है, तो दूसरी ओर मंडल के बाद की परिस्थिति है, जिसमें आरक्षण और जातीय वोट बैंक के आधार पर सामाजिक न्याय की ऐसी धारा है, जो इंगित करती है कि उसका रास्ता विकास की उन परिस्थितियों को छूयेगा, जिनमें लोग पारंपरिक तौर खुद अपना पेट भरने में सक्षम थे, जिसे आधुनिक बाजार ने खत्म कर दिया है.
अमेरिकी थिंक टैंक तक का कहना है कि बिहार चुनाव न सिर्फ बिहार की राजनीति का प्रतीक है, बल्कि भारत में कौन सी धारा रहेगी, इसका भी प्रतीक है. इसीलिए हर किसी को इसमें हर हाल में जीतना है.
लालू प्रसाद समझ रहे हैं कि यदि वे मंडल से जरा भी फिसले, तो उनकी राजनीति हाशिये पर चली जायेगी. दूसरी ओर भाजपा देख रही है कि आनेवाले वक्त में अगर विकास के लिए पूंजी चाहिए और पूंजी के आधार पर विकास चाहिए, तो कॉरपोरेटीकरण की धारा इस देश में तेजी से बहनी चाहिए. हालांकि इन सबके बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आ गया है. संघ का जुड़ाव सामाजिक तौर पर पूरे देश में है, इसे भाजपा जानती है, लेकिन संघ जिस स्वदेशी को लेकर चलता है, उसके साथ मोदी सरकार खड़ी नहीं हो रही है.
बिहार में राष्ट्रीय पार्टियों को क्षेत्रीय पार्टियों के साथ खड़ा होना पड़ रहा है. राष्ट्रीय पार्टी के मूल तत्व को छोड़ खुद को क्षेत्रीय बताने-जताने की कोशिश कांग्रेस को भी करनी पड़ रही है और भाजपा को भी. कांग्रेस सबसे छोटे भाई के तौर पर महागंठबंधन में है, यह जानते हुए भी कि लालू प्रसाद की नीतियों के साथ चलने पर उसका पारंपरिक सवर्ण वोट बैंक छिन जायेगा, वह हर हाल में मोदी को हराना चाहती है. दूसरी ओर भाजपा ने भी नहीं सोचा होगा कि उसे बिहार में आकर यह कहना पड़ेगा कि हम हर तबके को कुछ-न-कुछ देंगे.
भाजपा ने अपने विजन डॉक्यूमेंट में इस बात तक का जिक्र कर दिया कि दलितों के घरों में रंगीन टीवी लगा देगी. प्रत्येक गरीब परिवार को एक जोड़ा धोती-साड़ी दे देगी. भाजपा राजनीतिक तौर पर लोगों को लुभाने की यह तरकीब अपना रही है, यह सोचते हुए कि बिहार में गरीबी की जो स्थिति है, उसमें वह एक जोड़ी धोती-साड़ी देकर ही काम चला सकती है. एक तरफ जहां अरबों की योजनाआें का ऐलान है, वहीं दूसरी तरफ धोती-साड़ी का ऐलान भी है!
नीतीश की लड़ाई मोदी से है, इसलिए उन्हें वाइ-फाइ का भी जिक्र करना है, 24 घंटे बिजली, सौर ऊर्जा और आधुनिक सिंचाई का भी जिक्र करना है. नीतीश बिहार की माली हालत समझते हैं, तो उन्हें इस बात का भी जिक्र करना है कि उन्होंने लड़कियों के लिए साइकिल बांटी.
प्राथमिक स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र खुल जायेंगे, सड़कें भी गांवों में पहुंच जायेंगी, इसका भी नीतीश को जिक्र करना है. यानी एक तरफ न्यूनतम सुविधाएं हैं, तो दूसरी तरफ आधुनिक जीवन की चकाचौंध वाली रंगीन टीवी का ऐलान है. ये दोनों लड़ाइयां बिहार में एक साथ इसलिए लड़ी जा रही हैं, क्योंकि बिहार चुनाव में एक तरफ धुरी अगर पटना है, तो दूसरी तरफ दिल्ली भी धुरी बन गयी है.
यह स्थिति उस लड़ाई की ओर ले जा रही है, जिसमें अगर एक नेता दूसरे को चारा चोर कहता है, तो काउंटर में दूसरा उसे नरभक्षी कहने तक से नहीं कतराता है. यानी इस हाल में बिहार के चुनाव को लड़ना है, जिसमें आम आदमी को एहसास हो कि बिहार महत्वपूर्ण तो है, पर बिहार की आर्थिक-सामाजिक-हालत इतनी बदतर क्यों है, यह मुद्दा नहीं बन सके. इस स्थिति में मतदाता को सोचना पड़ रहा है कि लालू-नीतीश के साथ खड़ा होना है या फिर केंद्र सरकार के साथ.
कृषि पर टिकी बिहार की 80 प्रतिशत जनसंख्या के लिए कृषि से जुड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर की भारी कमी को कैसे दूर किया जाये, बड़ी तादाद में हर वर्ष ग्रेजुएट बननेवाले बिहार के युवाओं को रोजगार कैसे मिले, औद्योगिक विकास का स्वरूप क्या हो, इसका ब्लूप्रिंट किसी के पास नहीं है. इसका अर्थ यह हुआ कि जिस तरीके से बिहार चुनाव में विकास का ढांचा खड़ा किया जा रहा है, वह सिर्फ चुनाव जीतने के लिए है, जमीनी मुद्दों को हल करने के लिए नहीं है.
अगर बिहार को देखने का नजरिया दिल्ली वाला हो चला है, तो बीते डेढ़ बरस में मोदी सरकार ने क्या किया, इसे चुनाव के बीच में नीतीश ने ला खड़ा किया है, ताकि अगर कोई उनसे उनके दस बरस के बारे में पूछे, तो वह पहले मौजूदा डेढ़ बरस पर सवाल उठा सकें.
इसी का असर है कि 16 केंद्रीय मंत्री बिहार में एक दर्जन से ज्यादा चुनावी रैली करेंगे और खुद प्रधानमंत्री मोदी 22 रैलियां करनेवाले हैं. यानी केंद्र के कामकाज का अंतर्विरोध और बिहार में 25 बरस की सत्ता का अंतर्विरोध, दोनों एक-दूसरे से टकरा रहे हैं और जनता के सामने विकल्प वही है, जिसे वह खारिज करना चाहती है. ऐसे में चार सवाल महत्वपूर्ण हो जाते हैं.
पहला, क्या बिहार बीते 25 बरस की सत्ता को खारिज कर नये प्रयोग की दिशा में भाजपा के साथ खड़ा होना चाहेगा? दूसरा, क्या बिहार उस भाजपा के साथ खड़ा होगा, जिसकी सरकार केंद्र में है और पिछले डेढ़ बरस में ऐसा कुछ भी निकल कर नहीं आया है, जिससे लगे कि आनेवाले वक्त में स्थिति कुछ बदलेगी? तीसरा, क्या बिहार वाम मोरचे के साथ बन रहे तीसरे मोरचे की ओर देखना शुरू करे? चौथा, क्या बिहार के मतदाता जिस उम्मीदवार को अपने से जुड़ा पायेगा, उसकी ओर चला जायेगा?
इन सबके बीच आखिरी सच यही है कि बिहार चुनाव ने बिहार की उस त्रासदी को उभार दिया है, जिसमें लगता है कि 1951 में राष्ट्रपति बनने के बाद डॉ राजेंद्र प्रसाद ने जिस बात का जिक्र किया था, उसी का जिक्र 65 बरस बाद बिहार के नेता कर रहे हैं कि हर खेत में पानी दे देंगे, हर हाथ को काम देंगे, हर किसी को कलम थमा देंगे, हर किसान को उसकी फसल का पूरा दाम दे देंगे, उद्योग व्यापार को समृद्ध बनायेंगे.
संकेत बहुत साफ है कि चुनावी जीत के लिए सारे हथकंडे अपनाये जा रहे हैं, लेकिन बिहार को फिर उसी दिशा में धकेला जा रहा है, जहां उसकी हथेली खाली ही रहे.

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