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बदन पे पठानी और मन में पाखंड!

।।गुंजेश।। (प्रभात खबर, रांची) जी जनाब! मैं बिलकुल सच कह रहा हूं. वह मुझे मिला था, छुट्टियों के दौरान. कहां? यह मत पूछिए, क्योंकि भले ही वैज्ञानिकों ने यह पता लगा लिया हो कि फैलिन कब, कहां, कितने बजे आयेगा और उसकी चौहद्दी क्या होगी, लेकिन अभी तक देश-विदेश के किसी वैज्ञानिक ने यह तकनीक […]

।।गुंजेश।।

(प्रभात खबर, रांची)

जी जनाब! मैं बिलकुल सच कह रहा हूं. वह मुझे मिला था, छुट्टियों के दौरान. कहां? यह मत पूछिए, क्योंकि भले ही वैज्ञानिकों ने यह पता लगा लिया हो कि फैलिन कब, कहां, कितने बजे आयेगा और उसकी चौहद्दी क्या होगी, लेकिन अभी तक देश-विदेश के किसी वैज्ञानिक ने यह तकनीक नहीं बनायी है जो यह पता लगा सके कि किस समय में कौन सा जेबकतरा किस मेले में किसकी जेब काटेगा. कहा तो यह जाता है कि इतिहास में कुछ ऐसे जेबकतरे भी हुए, जो इतनी सफाई से जेब काट ले जाते थे, जितनी सफाई से कोई माशूका अपने महबूब का दिल चुराती है.

बस हाथ फिराया और आपका बटुआ गायब! खैर, मैं आपको जेबकतरों की सफाई का किस्सा सुना कर आपके किसी पुराने दर्द पर पुरवैया बयार नहीं बहाने वाला. तो मैं कह रहा था कि वह ‘पंद्रह अगस्त सन् सैंतालिस लाल’ मुङो मिला. अरे हां, वही राही मासूम रजा के उपन्यास ‘दिल एक सादा कागज है’ वाला ‘पंद्रह अगस्त सन् सैंतालिस लाल’ उर्फ राजू. जैसा कि आप सब जानते हैं और नहीं जानते हैं तो जान लीजिए, ‘पंद्रह अगस्त सन् सैंतालिस लाल’ अपने जमाने के मशहूर सेक्यूलर जेबकतरे थे.. अरे नहीं भाई, मैं मुलायम सिंह यादव की बात नहीं कर रहा.

मुलायम तो अब जाकर नेता हुए हुए हैं. ‘पंद्रह अगस्त सन् सैंतालिस लाल’ ने तो तब के जमाने में ही इंटरनेशनल क्रिमिनल एसोसिएशन बना कर जेबकतरों की हक की लड़ाई शुरू की थी. खैर वो मिले, नवमी-दशमी की झमाझम बारिश में बजरंगी हुसैन उर्फ काका की नयी ‘सेक्यूलर चाय’ की चुस्की लेते हुए. हम कहां पहचानते थे उन्हें, वो तो काका ने परिचय कराया तो उन्होंने भी सिद्धार्थ की जेब में हाथ फिराते हुए हमसे सलाम फरमाया. सिद्धार्थ ने बिना देरी किये उनसे उनके एसोसिएशन के बारे में पूछ लिया. पहले तो उन्होंने काका को डांटा कि अमां तुम सुबह-सुबह उधारवालों को मत पिलाया करो. तुम्हारा तो जो होगा सो होगा, मेरी भी बोहनी खराब हो गयी. फिर वो हमारी तरफ मुखातिब होकर बोले कि बेटा ऐसा है, हम सोचे रहे कि हम्मी सबसे बड़े जेबकतरे और बाकी सब तो एवें ही घास-फूस हैं.

बस यही गलती हो गयी, सही टेम पर जो हम अपने दोस्तों को दुश्मन न समङो रहे होते और जेब काटने से ज्यादा दो-चार ठो माथा उड़ाने पर ध्यान दिये होते तो लिख लो, हम भी किसी पार्टी के प्राइम-मिनिस्टीरियल कैंडिडेट होते. हम समझ ही नहीं पाये कि कब ई चोरी-छुप्पे होवेवाला काम देश में उद्योग बन गया. बाकी हम लड़ तो इसी लिए रहे थे कि हमारे काम को भी मेहनत-मजूरी समझा जाये, लेकिन हमरी शर्त थी कि हमारी अस्मिता भी बनी रहे. बाबू, हमरा ईमान एक बात पर पक्का था कि हम बापू वाला चोला पहन के चोरी-चकारीवाला धंधा नहीं करेंगे. बस भइया, यहीं चूक हो गयी. बदन पे पठानी और मन में पाखंड वाला गेम हम समझ नहीं पाये कभी.

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