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श्रद्धा के साथ अनुशासन भी जरूरी

अनुज कुमार सिन्हा वरिष्ठ संपादक प्रभात खबर देवघर में श्रावणी मेले में भगदड़ मची और 10 कांवरिये कुचल कर मर गये. ये कांवरिये सुल्तानगंज से गंगाजल लेकर देवघर आये थे, ताकि बाबा वैद्यनाथ पर चढ़ा सकें. सवाल आस्था का है और हर साल श्रवण माह में एक लाख से ज्यादा लोग हर दिन देवघर में […]

अनुज कुमार सिन्हा
वरिष्ठ संपादक
प्रभात खबर
देवघर में श्रावणी मेले में भगदड़ मची और 10 कांवरिये कुचल कर मर गये. ये कांवरिये सुल्तानगंज से गंगाजल लेकर देवघर आये थे, ताकि बाबा वैद्यनाथ पर चढ़ा सकें. सवाल आस्था का है और हर साल श्रवण माह में एक लाख से ज्यादा लोग हर दिन देवघर में जल चढ़ाने आते हैं.
सोमवार को यह भीड़ बहुत ज्यादा हो जाती है. इस भीड़ को नियंत्रित करने और मेले में सुरक्षा इंतजामों के लिए कई महीने पहले से तैयारी की जाती है, फिर भी हादसे हो ही जाते हैं.
ऐसी बात नहीं है कि ऐसे हादसे सिर्फ देवघर में ही हुए हैं. देश के कई राज्यों के प्रमुख मंदिरों और बड़े धार्मिक आयोजनों में ऐसे हादसे हो चुके हैं. भगवान के दर्शन और पुण्य कमाने की नीयत से लोग जाते हैं, लेकिन दुख की बात है कि उनकी जान चली जाती है. दोषी कौन है, कैसे इन हादसों को रोका जाये, क्या व्यवस्था हो कि लोगों की जान न जाये?
यह किसी भी प्रशासन या सरकार के लिए बड़ी चुनौती होती है, जब उन्हें लाखों लोगों को नियंत्रित करना होता है. महाकुंभ और गंगासागर मेले में तो यह संख्या कई लाख तक होती है. अगर ऐसे आयोजनों में थोड़ी-सी भी चूक हुई, तो बड़ी संख्या में लोगों की जान जाती है.
1954 के इलाहाबाद कुंभ में तो लगभग 800 लोगों की मौत हुई थी. नैनादेवी (हिमाचल प्रदेश) में दो-दो बार बड़े हादसे हो चुके हैं. मध्य प्रदेश के रतनगढ़ माता मंदिर में पांच लाख से ज्यादा लोग जमा हो गये थे. हादसा हुआ और 115 लोगों की मौत हो गयी. यह सही है कि सुरक्षा की जिम्मेवारी सरकार और प्रशासन की है, लेकिन इस बात को भी देखना होगा कि अगर आत्मानुशासन नहीं होगा, तो ऐसी घटनाएं घटेंगी ही.श्रद्धालुओं को धैर्य का परिचय देना होगा.
यह आसान नहीं होता. जो कांवरिया सुल्तानगंज से 109 किमी की दूरी तय कर दो-तीन दिन में पैदल देवघर पहुंचता है और उसे दर्शन के लिए, बाबा पर जल चढ़ाने के लिए 10-10 किमी लंबी लाइन में खड़ा होना पड़ता है, तो शरीर जवाब देने लगता है, धैर्य टूटने लगता है. हर कोई जल्द से जल्द जल चढ़ा कर लौटना चाहता है.
यही हाल है अन्य मंदिरों का. अगर दर्शन के लिए लाइन में पांच-दस घंटे खड़ा होना पड़े, तो लोग थकने लगते हैं और जल्द से जल्द दर्शन करना चाहते हैं. इसके लिए लोग लाइन तोड़ने से भी नहीं हिचकते. ऐसे में भगदड़ मचती है और लोग मारे जाते हैं.
हाल में गोदावरी पुष्करम में भगदड़ मची और 27 लोग मारे गये. आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने परिवार के साथ वहां स्नान कर रहे थे. वीआइपी हैं, इसलिए तमाम नियमों को तोड़ कर सभी श्रद्धालुओं को वहां रोक दिया गया.
जब मुख्यमंत्री का परिवार स्नान कर चुका और सामान्य श्रद्धालुओं की बारी आयी तो लोग दौड़ पड़े. इसी में भगदड़ मची और लोगों की जान गयी. यह वीआइपी संस्कृति भी ऐसे हादसों के लिए जिम्मेवार है.
भगवान के दरबार में भी महत्वपूर्ण लोगों के लिए अलग व्यवस्था होती है. अगर बड़े पद पर हैं तो पहले दर्शन की सुविधा, लाइन में नहीं लगने और सीधे दरबार में जाने की सुविधा. इससे अन्य श्रद्धालुओं के अंदर आक्रोश होता है और जब मौका मिलता है, फूट पड़ता है. धैर्य टूट जाता है और वे तोड़-फोड़ पर उतारू हो जाते हैं.
ऐसे हादसों को रोकने के लिए भारी संख्या में पुलिस बल भले ही तैनात हों, लेकिन अगर उनका प्रशिक्षण सही नहीं है, तो यह किसी काम का नहीं. पुलिस का व्यवहार और भीड़ को नियंत्रित करने की क्षमता पर बहुत कुछ निर्भर करता है. हो सकता है कि कांवरियों में कुछ ऐसे भी हों तो उत्पात मचा रहे हों और अन्य कांवरियों को धकेल कर आगे बढ़ना चाह रहे हों.
ऐसे में पुलिस को ताकत का इस्तेमाल तो करना ही पड़ेगा, लेकिन ख्याल रखना होगा कि अन्य कांवरिये इसकी चपेट में न आ जायें. आपमें धैर्य रखने की क्षमता है, तभी दर्शन और जलाभिषेक की योजना बनायें. यह समझना होगा कि हर किसी को उतनी ही जल्दी है, जितनी आपको है.इसलिए अनुशासित श्रद्धालु की तरह व्यवहार करें.
जैसे-जैसे समय बीत रहा है, ऐसे आयोजनों में श्रद्धालुओं की संख्या भी बढ़ रही है. इसलिए धार्मिक स्थलों की व्यवस्था भी आधुनिक होनी चाहिए. नयी तकनीक का प्रयोग करना होगा. ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिसमें कम से कम समय में अधिक से अधिक श्रद्धालु दर्शन कर सकें.
यह काम आसान नहीं होता, क्योंकि परंपरा का सवाल उठ खड़ा होता है. जिस जगह पर 50 लोग ही खड़े हो सकते हैं और अगर वहां तीन-चार सौ लोग घुसने लगे तो स्थिति बिगड़ेगी ही. बेहतर होगा कि ऐसे धार्मिक स्थलों का प्रबंधन देखनेवाले नये बदलाव पर विचार करें.
जान कीमती है, इस बात को महसूस करना होगा. सरकार-प्रशासन अपना काम करे, बेहतर से बेहतर व्यवस्था करे, लेकिन श्रद्धालु अपने दायित्व को भी निभायें. बनाये गये नियमों को मानें. अगर ऐसा होने लगे, तो इस प्रकार की घटनाएं कम होंगी और लोगों की जान नहीं जायेगी.

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