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जांच से परहेज क्यों!

तर्क का सहारा लेते समय शायद ही कोई यह सोचता हो कि यह दोधारी तलवार भी हो सकता होता है. जो तर्क आप विरोधी को हराने के लिए देते हैं, वह आपके खिलाफ भी जा सकता है. नोएडा विकास प्राधिकरण के पूर्व मुख्य अभियंता यादव सिंह को बचाने के चक्कर में उत्तर प्रदेश सरकार कुछ […]

तर्क का सहारा लेते समय शायद ही कोई यह सोचता हो कि यह दोधारी तलवार भी हो सकता होता है. जो तर्क आप विरोधी को हराने के लिए देते हैं, वह आपके खिलाफ भी जा सकता है.
नोएडा विकास प्राधिकरण के पूर्व मुख्य अभियंता यादव सिंह को बचाने के चक्कर में उत्तर प्रदेश सरकार कुछ ऐसे ही तर्क के साथ सुप्रीम कोर्ट तक गयी है. यादव सिंह पर आय से अधिक संपत्ति जुटाने के आरोप हैं.
पिछले माह इलाहाबाद हाइकोर्ट ने सिंह पर लगे आरोपों की जांच सीबीआइ से कराने का आदेश दिया. इस पर यूपी सरकार के तेवर कुछ ऐसे तने, मानो यह अदालत का आदेश नहीं, उसकी अस्मिता पर ही चोट हो. सरकार का तर्क है कि हाइकोर्ट का आदेश प्रदेश की सियासत में केंद्र के हस्तक्षेप का एक नमूना है, क्योंकि यह फैसला केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा प्रदेश सरकार को लिखे गये दो पत्रों के आधार पर दिया गया है.
वित्त मंत्रालय ने फरवरी में चिट्ठी लिखी थी कि यादव सिंह प्रकरण में एसआइटी ने सीबीआइ जांच की सिफारिश की है, इसलिए बेहतर है कि मामला सीबीआइ को ही सौंप दिया जाये. लेकिन, इससे यह बात कहां से जाहिर होती है कि केंद्र सरकार संघीय ढांचे के भीतर राज्यों को प्रदत्त आपेक्षित स्वायत्तता की भावना के खिलाफ काम कर रही है! सीबीआइ जांच को बंद करवाने के लिए डाली गयी याचिका में यूपी सरकार का एक तर्क यह भी है.
हालांकि कहा जा सकता है कि इस प्रकरण में केंद्र सरकार सीबीआइ जांच के पक्ष में जिस तत्परता के साथ खड़ी है, वह मध्य प्रदेश के व्यापमं भ्रष्टाचार में नहीं दिख रहा था. सीबीआइ जांच की बात व्यापमं मामले में बहुत दिनों तक टलती रही. लेकिन यह भी देखा जाना चाहिए कि जनमत में दबाव में आखिरकार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने स्वयं ही सीबीआइ जांच पर सहमति जतायी.
उन्होंने यूपी सरकार की तरह यह नहीं कहा कि केंद्र सरकार की तत्परता दरअसल यूपी सरकार के विरुद्ध सीबीआइ का राजनीतिक इस्तेमाल करना है. यूपी सरकार को बताना चाहिए कि सीबीआइ की जांच व्यापमं मामले में मध्य प्रदेश की सियासत में केंद्र का हस्तक्षेप नहीं है, तो यादव सिंह प्रकरण में यह आरोप कैसे लगाया जा सकता है!
इसी से जुड़ी हुई एक बात और है. क्या केंद्र की घोषित या अघोषित पहल पर सीबीआइ जब प्रादेशिक प्रकरणों की जांच करती है, तो क्या ऐसी हर जांच को राज्य की राजनीति में केंद्र के दखल की तरह देखा जायेगा. अगर सचमुच ऐसा है, तो अखिलेश यादव के नेतृत्ववाली सरकार को यह भी बताना चाहिए कि फिर सीबीआइ को कायम रखने का औचित्य ही क्या है!
यह बात ठीक है कि सीबीआइ की जांच पर बहुधा आरोप लगे हैं और उसे सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार का तोता तक कहा है, परंतु सीबीआइ की जांच को प्रदेश की किसी संस्था में हुए भ्रष्टाचार की जांच से रोकने की पहलकदमी करने से पहले यह विचार कर लेना उचित होगा कि क्या स्वयं प्रादेशिक स्तर पर हुई जांच के निष्पक्ष होने की कोई गारंटी है?
न्याय का बुनियादी नियम तो यही है कि कोई प्रकरण अगर जांच का विषय बन जाये, तो फिर उससे जुड़े तथ्यों को खंगालने का काम प्रकरण से सीधे जुड़े किसी भी पक्ष को न सौंप कर किसी एक तटस्थ की तलाश हो.
खजाना लुटा हो तो लूट की जांच का काम उसकी रखवाली पर तैनात पहरेदार को तो नहीं सौंप सकते. इस कोण से देखें, तो यादव सिंह प्रकरण की जांच अपने अधिकार क्षेत्र की किसी एजेंसी से करवाने की जिद्द पर बने रहने की यूपी सरकार की कोशिश स्वयं में ही यह आशंका जगाने के लिए काफी है कि मामला सिर्फ एक अधिकारी तक नहीं सिमटा है, उसका पसारा व्यापमं घोटाले की तरह विस्तृत है. मामले की अब तक हुई जांच से सामने आये तथ्य इस आशंका को पर्याप्त बल देते हैं.
समाचारों में यादव सिंह को 1000 करोड़ का इंजीनियर नाम दिया गया. नोएडा प्राधिकरण की प्रारंभिक पड़ताल में यह बात सामने आयी कि इस अधिकारी ने 2007 से 2014 के बीच नोएडा में करीब 8000 करोड़ रुपये की इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को क्रियान्वित किया और नौ सालों में 500 करोड़ रुपये के बांड पर हस्ताक्षर किये, यानी काम के शुरू होने पर फर्मो को फंड देने का काम किया.
इसी प्रक्रिया में उन्होंने ढेर सारा धन जुटाया. वे औद्योगिक, व्यावसायिक और आवासीय परियोजनाओं के लिए भूमि आवंटित करने से भी जुड़े रहे, जिसकी रकम की गणना का काम बाकी है.
यादव सिंह राजनीतिक रूप से प्रतिस्पर्धी मायावती और मुलायम सिंह यादव, दोनों के शासनकाल में समान रूप से सरकार के प्रिय रहे और राजनीतिक रसूख के दम पर 1000 करोड़ का इंजीनियर कहलाये. उनके कारनामों की सीबीआइ जांच पर नाक-भौंह सिकोड़ने की अखिलेश सरकार की कवायद तिनके की ओट से पहाड़ ढंकने की कोशिश जान पड़े, तो क्या अचरज!

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