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मुझे लौटा दीजिए वह मेरा देश है

।। राजेंद्र तिवारी ।। (कारपोरेट संपादक) प्रभात खबर राजनीति, अर्थनीति, कूटनीति और इतिहास से ऊब रहा था. अध्यादेश का कूड़े की टोकरी में जाना, चारा घोटाला, लालू जी को सश्रम जेल और उसके बाद बिहार के समीकरण, शरीफ–ममो बातचीत और पाकिस्तान की तरफ से कश्मीर में नापाक हरकत, अमेरिका में शट डाउन, देवालय–शौचालय विवाद. हर […]

।। राजेंद्र तिवारी ।।

(कारपोरेट संपादक)

प्रभात खबर

राजनीति, अर्थनीति, कूटनीति और इतिहास से ऊब रहा था. अध्यादेश का कूड़े की टोकरी में जाना, चारा घोटाला, लालू जी को सश्रम जेल और उसके बाद बिहार के समीकरण, शरीफममो बातचीत और पाकिस्तान की तरफ से कश्मीर में नापाक हरकत, अमेरिका में शट डाउन, देवालयशौचालय विवाद. हर समय यही बातें चारों तरफ.

और ऊपर से और भी गम हैं जमाने में.. थोड़ी राहत की दरकार थी. लिहाजा कविताओं की शरण में चला गया. पहले पढ़ी हुई कई कविताएं याद करने की कोशिश की, कई कविताएं तलाशीं और पढ़ीं. ट्ठे की कई कविताएं स्मृति में उभरीं. उनमें से एक आप सबकी नजर है

जो पुल बनाएंगे/वे अनिवार्यत:

पीछे रह जाएंगे/सेनाएं हो जाएंगी पार

मारे जाएंगे रावण/जयी होंगे राम,

जो निर्माता रहे इतिहास में/बंदर कहलाएंगे.

उज्जैन के चंद्रकांत देवताले की कविता मैं मरने से नहीं डरता बरबस याद गयी. साथ ही एक किस्सा भी. उन दिनों इंदौर में था. वहां के पुस्तकालयों पर एक स्टोरी की जा रही थी. इस क्र में एक प्रमुख पुस्तकालय के पुस्तकालयाध्यक्ष से पूछा गया कि क्या देवताले (यानी देवताले जी की लिखी पुस्तकें) हैं आपके यहां. जवाब में सवाल आया कि ये कौन से ताले हैं. यहां तो किताबें मिलतीं हैं. है गंभीर सवाल? जवाब बाद में सोचिएगा, पहले तो देवताले जी की कविता का आनंद लें

मैं मरने से तो डरता हूं/ बेवजह मरने की चाहत संजोए रखता हूं

एक जासूस अपनी तहकीकात बखूबी करे/यही उसकी नियामत है

किराये की दुनिया और उधार के समय की/कैंची से आजाद हूं पूरी तरह

मुग्ध नहीं करना चाहता किसी को

मेरे आड़े नहीं सकती सस्ती और सतही मुस्कुराहटें

मैं वेश्याओं की इज्जत कर सकता हूं

पर सम्मानितों की वेश्याओं जैसी हरकतें देख

भड़क उठता हूं पिकासो के सांड़ की तरह/मैं बीस बार विस्थापित हुआ हूं

और जख्मों की भाषा और उसके गूंगेपन को/अच्छी तरह समझता हूं

उन फीतों को मैं कूड़ेदान में फेंक चुका हूं/जिनसे भद्र लोग जिंदगी और कविता की नापजोख करते हैं

मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा

कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा/और मैंने उन लोगों पर कभी यकीन नहीं किया

जो घृणित युद्ध में शामिल हैं

और सुभाषितों से रौंद रहे हैं/अजन्मी और नन्हीं खुशियों को

मेरी यही कोशिश रही/पत्थरों की तरह हवा में टकराएं मेरे शब्द

और बीमार की डूबती नब्ज को थाम कर/ताजा पत्तियों की सांस बन जाएं

मैं अच्छी तरह जानता हूं

तीन बांस, चार आदमी और मुट्ठी भर आग

बहुत होगी अंतिम अभिषेक के लिए

इसीलिए तो मैं मरने से डरता हूं

बेवजह शहीद होने का सपना देखता हूं/ऐसे जिंदा रहने से नफरत है मुझे

जिसमे हर कोई आये और मुझे अच्छा कहे/मैं हर किसी की तारीफ करते भटकता रहूं

मेरे दुश्मन हों

और इसे मैं अपने हक में बड़ी बात मानूं

भगवतीचरण वर्मा की पुण्यतिथि 5 अक्तूबर को थी. करीब 25 साल पहले उनकी एक कविता पढ़ी थी. कुछ लाइनें याद थीं. गूगल पर टाइप किया और कविता सामने थी

कल सहसा यह संदेश मिला/सूनेसे युग के बाद मुझे

कुछ रोकर, कुछ क्रोधित होकर/तुम कर लेती हो याद मुझे

गिरने की गति में मिलकर/गतिमय होकर गतिहीन हुआ

एकाकीपन से आया था/अब सूनेपन में लीन हुआ

यह ममता का वरदान सुमुखी/है अब केवल अपवाद मुझे

मैं तो अपने को भूल रहा/तुम कर लेती हो याद मुझे

पुलिकत सपनों का क्रय करने/मैं आया अपने प्राणों से

लेकर अपनी कोमलताओं को/मैं टकराया पाषाणों से

मिटमिटकर मैंने देखा है/मिट जानेवाला प्यार यहां

सुकुमार भावना को अपनी/बन जाते देखा भार यहां

उत्तप्त मरुस्थल बना चुका/विस्मृति का विषम विषाद मुझे

किस आशा से छवि की प्रतिमा/तुम कर लेती हो याद मुझे

हंसहंसकर कब से मसल रहा/हूं मैं अपने विश्वासों को

पागल बनकर मैं फेंक रहा/हूं कब से उलटे पांसों को

पशुता से तिलतिल हार रहा/हूं मानवता का दांव अरे

निर्दय व्यंग्यों में बदल रहे/मेरे ये पल अनुरागभरे

बन गया एक अस्तित्व अमिट/मिट जाने का अवसाद मुझे

फिर किस अभिलाषा से रूपसि/तुम कर लेती हो याद मुझे

यह अपनाअपना भाग्य, मिला/अभिशाप मुझे, वरदान तुम्हें

जग की लघुता का ज्ञान मुझे/अपनी गुरु ता का ज्ञान तुम्हें

जिस विधि ने था संयोग रचा/उसने ही रचा वियोग प्रिये

मुझको रोने का रोग मिला/तुमको हंसने का भोग प्रिये

सुख की तन्मयता तुम्हें मिली/पीड़ा का मिला प्रमाद मुझे

फिर एक कसक बनकर अब क्यों/तुम कर लेती हो याद मुझे

और अंत में..

कविअनुवादक गीत चतुर्वेदी ने अपनी एफबी वॉल पर बहुत अच्छी कविता पोस्ट की है. इराकी कवि दुन्या मिखाइल की. पढ़िए यह कविता और सोचिए देश के बारे में

कल मैंने एक देश खो दिया

मैं बहुत हड़बड़ी में थी

मुझे पता ही नहीं चला

कब मेरी बांहों से फिसल कर गिर गया वह/जैसे किसी भुलक्कड़ पेड़ से गिर जाती है/कोई टूटी हुई शाख

कोई उसके पास से गुजरे

और वह उसकी टांगों से टकरा जाए

शायद आसमान की ओर खुले पड़े किसी सूटकेस में

या किसी चट्टान पर उकेरा हुआ

मुंह खोल चुके किसी घाव की तरह

या निर्वासित लोगों के कंबलों में लिपटा

या किसी हारे हुए लॉटरी टिकट की तरह खारिज/या किसी नरक में पड़ा असहाय, विस्मृत

या बिना किसी मंजिल के लगातार दौड़ता/बच्चों के सवालों की तरह

या युद्ध के धुएं के साथ उठता

या रेत पर किसी झोपड़ी में लुढ़कता

या अलीबाबा के मर्तबान में लुकाया हुआ/या भेस बदल कर पुलिसवाले की पोशाक में खड़ा

जिसने अव्यवस्था फैला दी हो कैदियों के बीच/और ख़ुद भाग खड़ा हुआ हो

या हंसने की कोशिश करती

किसी औरत के दिमाग में

उकड़ूं बैठा हुआ

या अमेरिका में नए आए लोगों के

सपनों की तरह बिखरा हुआ

किसी भी रूप में टकराए वह किसी से

तो कृपया उसे मुझे लौटा दीजिए

मुझे लौटा दीजिए, श्रीमान

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