दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना कहा करते थे कि ‘मैं तो अपनी सरकार का मुख्य सचिव भर हूं, दिल्ली के सीएम को अधिकार ही कहां हैं!’ बात चाहे जितनी विचित्र लगे, लेकिन खुराना की बातों में तल्ख सच्चाई छुपी थी.
दिल्ली प्रदेश के शासन से संबंधित प्रावधान में साफ दर्ज है कि मंत्रिमंडल अपने प्रधान यानी मुख्यमंत्री समेत राजकाज के मामलों में लेफ्टिनेंट गवर्नर (एलजी) के लिए परामर्शकारी भूमिका निभायेगा. राजकाज के बारे में प्रदेश सरकार कानून बना सकती है, पर एलजी को कुछ मामलों में विशेषाधिकार भी होंगे. फिलहाल मुख्यमंत्री के रूप में अरविंद केजरीवाल इसी सच्चाई का सामना कर रहे हैं. एलजी के रूप में नजीब जंग ने अपने विशेषाधिकार के तहत ही मुख्य सचिव के के शर्मा के छुट्टी पर जाने के बाद उनके पद पर कार्यकारी के रूप में शकुंतला गैमलिन की नियुक्ति की.
हो सकता है, किन्हीं कारणों से केजरीवाल को यह नियुक्ति पसंद न हो, पर इसका मतलब यह नहीं कि वे एलजी के अधिकारों को मानने से ही इनकार कर दें. फिलहाल ऐसा ही हो रहा है. मुख्य सचिव का पद मई की 23 तारीख तक के लिए ही खाली हुआ था और मात्र इतनी सी अवधि में एलजी और मुख्यमंत्री के बीच अधिकारों की लड़ाई दोनों के अहंकार की लड़ाई में तब्दील हो गयी है.
मुख्यमंत्री अधिकारियों से कह रहे हैं कि एलजी से आदेश लेने से पहले हमसे पूछिये. हद तो यह है कि दिल्ली सरकार मुख्य सचिव के दफ्तर पर ताले जड़वाने की राजनीति तक उतर आयी है. मदनलाल खुराना या शीला दीक्षित के मुख्यमंत्री रहते केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच जब भी तनातनी हुई, समाधान आपसी बातचीत से निकाला गया. पर, सड़क और संसद की राजनीति में फर्क न करनेवाले केजरीवाल को सुलह का रास्ता पसंद नहीं. सरकार में रहते केजरीवाल पहले भी जता चुके हैं कि लोकतांत्रिक मर्यादाओं के पालन को लेकर वे गंभीर नहीं हैं.
हाल ही में उन्होंने मीडिया का मुंह बंद करने के लिए विशेष प्रकोष्ठ के गठन का करिश्मा किया और सुप्रीम कोर्ट से फटकार खायी. उम्मीद की जानी चाहिए कि स्थिति और विद्रूप होने से पहले ही समाधान तक पहुंचेगी और अपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल अपने अहं से ज्यादा लोकतांत्रिक मर्यादाओं की कद्र करेंगे.