कुश्ती दुनिया के प्राचीनतम खेलों में से एक है. इसका जिक्र यूनान के ग्रंथ इलियड में भी मिलता है और भारत के महाभारत में भी. इस नाते इसे इनसानी सभ्यता का साझा खेल भी कहा जा सकता है, लेकिन बीते सात महीने से यह खेल अंतरराष्ट्रीय खेलों के कुंभ (ओलिंपिक) के खेलों की सूची से बाहर था.
अब इस बात पर खुशी जतायी जा सकती है कि अर्जेटीना के ब्यूनस आयर्स में चल रही अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक कमेटी की बैठक में मतदान के बाद कुश्ती को 2020 और 2024 के ओलिंपिक में शामिल कर लिया गया है. इस तरह से 708 ईसा पूर्व यानी ओलिंपिक के जन्म के समय से ही उसका हिस्सा रहे इस खेल ने अपना सम्मानपूर्ण पद फिर से हासिल कर लिया है.
इसमें कोई शक नहीं कि कुश्ती आज भी दुनिया में काफी लोकप्रिय है. पिछले साल संपन्न हुए लंदन ओलिंपिक में कुश्ती में 71 देशों के प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया था, जो एक रिकॉर्ड है. परंतु, सच यह भी है कि कुश्ती को सुधार की जरूरत थी. कुश्ती की कहानी बदलाव की जरूरत के सिद्धांत को सच साबित कर रही है. ओलिंपिक कमेटी के मुताबिक तेज एक्शन से भरे आज के समय में कुश्ती ‘अबूझ’ और दर्शकों को बांध पाने में अक्षम नजर आने लगी थी.
पिछले सात महीने में कुश्ती ने खुद को आधुनिक दर्शकों के हिसाब से आकर्षक बनाने की दिशा में कई कदम उठाये हैं. इसका ओलिंपिक से बाहर होना भारत के पहलवानों और कुश्ती–प्रेमियों के लिए खासतौर पर बुरी खबर थी, क्योंकि लंदन ओलिंपिक में भारत की झोली में दो पदक (एक रजत और एक कांस्य) कुश्ती के मैट पर दमखम दिखानेवाले दो जांबाजों की बदौलत आया था.
भारतीय पहलवान सुशील कुमार को 2008 के बीजिंग ओलिंपिक में मिली सफलता के बाद से भारत में कुश्ती की लोकप्रियता बढ़ी है. आज भारत के पहलवान विश्व पटल पर पदकों के लिए सशक्त दावेदारी पेश कर रहे हैं. ऐसे में ओलिंपिक कमेटी का फैसला कुश्ती को अपना जीवन समर्पित करनेवाले पहलवानों के लिए सुकून देनेवाली खबर कही जा सकती है.
अब वे भविष्य की चिंताओं की फिक्र किये बगैर ओलिंपिक में राष्ट्रीय धुन पर तिरंगा फहराने के अपने ख्वाब को पूरा करने के लिए पूरे समर्पण के साथ जुट सकते हैं.