।।शुजात बुखारी।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
भारत में जर्मनी के राजदूत माइकल स्टेनर की टीम कश्मीर के ऐतिहासिक ‘शालीमार बाग’ में विश्व प्रसिद्ध संगीतकार जुबिन मेहता के 7 सितंबर को हो रहे ‘कंसर्ट’ की तैयारी में जुटी है. हालांकि, अलगाववादियों द्वारा इसके विरोध से आयोजकों को झटका लगा है. जर्मनी के राजदूत माइकल स्टेनर ने एक निजी मुलाकात में बताया कि वे कश्मीर के लोगों के लिए ही यह आयोजन कराना चाहते हैं. दूतावास से आमंत्रण पानेवालों से हुई बातचीत से यह नतीजा सामने आया है कि ज्यादातर कश्मीरी इसके समर्थन में हैं. पर चुप रहनेवाले बहुसंख्य लोग यदि सामने नहीं आते हैं, तो मुखर अल्पसंख्यकों को इसे मुद्दा बनाने का मौका मिल सकता है.
संगीत के लिए कोई सीमारेखा नहीं होती और कश्मीरी संगीत की अपनी एक विशिष्टता या खास पहचान है. विवाह समारोहों और फसल कटाई के मौकों पर कश्मीरी एक साथ संगीत का आनंद लेते हैं. अपनी इस समृद्ध संस्कृति और विरासत पर समुदाय को गर्व है. इसलिए दूसरों की संस्कृति और विरासत के प्रति अनादर प्रकट करने का सवाल ही नहीं पैदा होता है. पर सच्चई यही है कि इस कंसर्ट और कश्मीरी अवाम के बीच व्यापक असंबद्धता है. संगीत के मामले में आम कश्मीरी की पसंद सीमित है और उसका ज्यादा से ज्यादा विस्तार हिंदी फिल्मों तक हो पाया है. इसे समझना इतना आसान नहीं है कि ‘बिथोवन ऑर्केस्ट्रा’ से संबंध कायम करना शेष दुनिया के लिए कितना महत्व रखता है, पर इसका यह मतलब नहीं कि कश्मीर में ऐसे ‘कंसर्ट’ नहीं आयोजित हों. ब्रिटेन और पश्चिमी देशों, भारत के भी कई शहरों में ‘कश्मीरी कंसर्ट’ होते हैं. भले ही संगीत को समझने के लिए किसी खास चीज की जरूरत नहीं होती, लेकिन इसके साथ एक प्रकार का जुड़ाव होना जरूरी है.
जर्मन राजदूत ने इस मसले पर व्यापक बातचीत के लिए 17 जुलाई को सिविल सोसाइटी के सदस्यों से मुलाकात की थी. इसमें विभिन्न व्यापारी वर्ग, स्तंभकार, बुद्धिजीवी, कश्मीर आने-जानेवाले कारोबारी और पत्रकार शामिल थे. हालांकि, स्टेनर का मानना है कि यह एक गैर-राजनीतिक समारोह है और भारत सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन कश्मीर के मौजूदा हालात के मद्देनजर इसमें शामिल होनेवालों की सुरक्षा की दृष्टि से सरकार इस समारोह की अनदेखी नहीं कर सकती. ऐसे आयोजन के सरकार के सहयोग के बिना सफल होने की कल्पना करना किसी भी राजदूत या दूतावास के लिए संभव नहीं है. खास कर जब इसमें 500 से भी अधिक विदेशी और हजार से भी ज्यादा स्थानीय लोगों (वे जो कोई भी हों) की भागीदारी हो. हो सकता है कि राजनीतिक स्तर पर इसका संबंध न हो, पर प्रशासनिक स्तर पर सरकार किसी ऐसी चीज की अनुमति कैसे दे सकती है, जो उसकी नियमावली में फिट न हो. जर्मन राजदूत का इरादा संजीदगी पर आधारित है, पर कश्मीर की फिजा माहौल के अनुकूल नहीं है.
पिछले 22 वर्षो से कश्मीर एक व्यापक संघर्ष के दौर से गुजर रहा है और वास्तविकता तथा धारणा के बीच एक बड़ी खाई कायम है. जब कोई अन्य देश ऐसे समारोह आयोजित करता है, तो उसके अपने कुछ निहितार्थ होते हैं. कश्मीर में निश्चित रूप से कई तरह के दृष्टिकोण हैं. श्रीनगर और नयी दिल्ली के बीच गंभीर राजनीतिक सक्रियता के अभाव में आत्मविश्वास और भरोसे की जगह मुश्किल से बनती है. इसलिए ऐसे समारोह को लेकर विवाद होना लाजिमी है. विभिन्न वर्गो के लिए हालात के सामान्य होने का अलग-अलग नजरिया है. आम लोगों में से कोई ऐसा नहीं चाहता कि हालात सामान्य न हों. कश्मीर में अमन-चैन एक तरह से दांव पर लगा हुआ है. पिछले 22 वर्षो से जारी संघर्ष में कश्मीरियों की आर्थिक स्थिति बदहाल हो चुकी है. इस दौरान इनके साथ नृशंस व्यवहार हुआ है. पर्यटन के कारोबार से जुड़े लोग ऐसे आयोजन से बेहद खुश होंगे, क्योंकि इससे कश्मीर को दुनियाभर में लोकप्रियता हासिल होगी और ज्यादा पर्यटक घाटी की ओर आकर्षित हो सकते हैं. लेकिन जो लोग एक अलग तरह की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके लिए मसला यह है कि इस आयोजन से कश्मीर को एक ऐसी जगह के तौर पर समझा जायेगा, जहां किसी तरह के समाधान की जरूरत नहीं, और यह भी अपनी जगह सही है. हालांकि, विरोध के लिए हड़ताल सही नहीं है. प्रशासन के लिए जब ऐसा आयोजन पहले से ‘चुनौतीपूर्ण’ हो, हड़ताल को सरकार और प्रशासन की राह आसान बनाना ही कहा जायेगा, क्योंकि तब उन्हें बड़ी बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ेगा.
जर्मन दूतावास को कश्मीर की जनता से सीधा संबंध कायम करना चाहिए था. पूर्व के अनुभव दर्शाते हैं कि जब कभी इस तरह के आयोजन हुए हैं, तो उनका इस्तेमाल कुछ इस तरह से ढोल पीटने के लिए किया गया कि कश्मीर में हालात सामान्य हैं और यहां किसी समाधान की जरूरत नहीं है. पर हकीकत में यह ऐसा मसला है, जिसका समाधान किये जाने की जरूरत है. ऐसी आवाज न केवल अलगाववादियों की ओर से सुनाई दे रही है, बल्कि दिल्ली के आशीर्वाद से सत्ता का सुख ले चुके या ले रहे लोगों की तरफ से भी आ रही है. कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप करते हुए इसे सुलझाने को लेकर कश्मीरी अवाम पश्चिमी देशों की ओर भी उम्मीद लगाये हुए है. इस संबंध में मदद के लिए वे अकसर अमेरिका और अन्य देशों की ओर हाथ बढ़ाते रहते हैं. ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि विवाद में एक पक्ष पाकिस्तान भी है और इस मामले में पश्चिमी देशों के निर्देशों के अनुकूल ‘लॉबिइंग’ होती रही है. इसलिए इस समारोह को भले ही कश्मीर समस्या के समाधान में किसी योगदान के रूप में नहीं देखा जा रहा हो, फिर भी जर्मनी एक सुखद समारोह लेकर श्रीनगर पहुंच तो रहा ही है. जर्मनी ‘यूरोपियन यूनियन’ का अहम हिस्सा है, इसलिए इसके योगदान को कम नहीं आंका जा सकता.
कश्मीरी अवाम जुबिन मेहता या जर्मनी के खिलाफ नहीं है, लेकिन जिस तरह से इस समारोह को उन पर ‘थोपा’ जा रहा है, उसने निश्चित रूप से कुछ सवाल खड़े किये हैं. हालांकि, जर्मन राजदूत का इरादा कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फोकस करने का है, जो स्वागतयोग्य कदम है. पर इससे जुड़े राजनीतिक और मानवाधिकार के विवादित मसलों पर भी उनका पक्ष स्पष्ट होना चाहिए. कश्मीर की जनता अपनी मेहमाननवाजी के लिए जानी जाती है, पर पहले जमीनी स्तर पर व्यापक कार्यकलापों को अंजाम देना चाहिए था. घाटी की सुखद फिजाओं में कड़वाहटों को तल्ख करना अच्छा नहीं कहा जा सकता.