।।अल्पना मिश्र।।
(एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू)
एक विद्यार्थी के जीवन में शिक्षक के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि शिक्षा के शुरुआती पायदान पर कदम रखने वाला बच्च प्राथमिक शिक्षा के दौरान अपने माता–पिता व अन्य प्रियजनों की अपेक्षा अपने शिक्षक की बात को कहीं ज्यादा सही मानता है. हालांकि अब स्थिति पहले जैसी नहीं रही. पिछले कुछ वर्षो में हमारे देश में बाजार का जिस तरह से विस्तार हुआ है, उसने हमारे समाज को प्रभावित किया है. इस बाजार ने ज्ञान की जरूरत तो कम कर दिया है. आज के दौर में ज्ञान और मौलिक प्रतिरूपों की जरूरत नहीं है. बाजार को जरूरत है तो बस अपने उत्पाद को बेचने की. इस परिवर्तन के चलते समाज में पूंजी का वर्चस्व बढ़ा है और जीवनमूल्य पिछड़ गये हैं. ऐसे समाज में शिक्षक की भूमिका चुनौतीपूर्ण हो जाती है.
आज का विद्यार्थी भौतिकता की दौड़ में भाग रहा है. उसे मोबाइल से लेकर इंटरनेट तक सारी सुविधाएं चाहिए. उनमें संतोष नाम की कोई चीज नहीं रह गयी है. इस बदले हुए समाज में शिक्षक को भी कई तरह के परिवर्तनों का सामना करना पड़ रहा है. पहले साइकिल से चलनेवाले हमारे शिक्षक की भी समाज में बहुत इज्जत होती थी. धीरे-धीरे स्थितियां बदलीं और यह देखा जाने लगा कि शिक्षक के पास है ही क्या? ऐसे में उसे बार-बार अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा. समाज में आयी भौतिकता ने शिक्षकों की विचारधारा को तोड़ दिया. आज शिक्षक को भी गाड़ी, बंगला और भौतिकता से जुड़ी तमाम सुख-सुविधाएं चाहिए. इन ख्वाहिशों के चलते विद्यार्थी और शिक्षक दोनों ही भौतिकता की दौड़ में शामिल हो गये. बावजूद इसके, आज जो शिक्षक इस परिवर्तन से खुद को बचाये हुए हैं, अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक हैं और विद्यार्थी को अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं, उन्हें अच्छे विद्यार्थी नहीं मिल पा रहे हैं. दूसरी ओर जहां विद्यार्थी चाह रहे हैं कि उन्हें सही गुरु मिले, वहां उन्हें अपनी उम्मीदों पर खरा उतरनेवाला गुरु नहीं मिल पा रहा है.
इन स्थितियों के बीच शिक्षा के निजीकरण ने शिक्षकों को एक नये संकट में डाल दिया है. ज्यादातर सरकारी संस्थानों में शिक्षकों को फिर भी ठीक-ठाक वेतन मिल जाता है, लेकिन आये दिन खुलनेवाले प्राइवेट संस्थान उतना वेतन नहीं दे रहे, जितना उन्हें मिलना चाहिए. कहीं-कहीं तो स्थिति इतनी खराब है कि शिक्षकों को समय पर वेतन ही नहीं दिया जा रहा. आज मैनेजमेंट, मार्केटिंग जैसे प्रोफेशनल कोर्स करवानेवाले उच्च शिक्षण संस्थान भी ऐसे शिक्षकों को प्राथमिकता दे रहे हैं, जो योग्यता की बजाय कम पैसों में काम करने के लिए तैयार हों. जाहिर है कि ये उच्च शिक्षण संस्थान वेतन को लेकर शिक्षक की गुणवत्ता से आसानी से समझौता कर लेते हैं. प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर भी ऐसा ही बदलाव आया है. निजी स्कूलों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है. दयनीय स्थिति यह है कि छोटे-छोटे स्कूलों में मात्र कुछ सौ रुपये मासिक में शिक्षक पढ़ा रहे हैं. महंगाई के इस दौर में महीने बाद कुछ सौ रुपये पाने वाला शिक्षक क्या खायेगा और बाकी जरूरतों को कैसे पूरा करेगा? जाहिर है स्टेटस को प्रमुखता देनेवाले दौर में अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए शिक्षकों को दूसरे काम भी करने पड़ेंगे. और जब वे दूसरे कामों में व्यस्त रहेंगे तो बच्चों को थोड़ा-सा भी अतिरिक्त समय नहीं देना चाहेंगे. जाहिर है समाज में धन के प्रति जो चकाचौंध आया है, उसने सिर्फ शिक्षक या विद्यार्थी को ही नहीं, पूरे शिक्षा जगत को बदल दिया है.
आज उच्च शिक्षा में उन विषयों पर जोर है, जो बाजारपरक हैं. वहीं चेतना, वैचारिक आलोहन, मानविकीय और विद्यार्थियों को समर्थ बनानेवाले विषयों को महत्व नहीं दिया जा रहा है. आज के विद्यार्थी उन विषयों की ओर बढ़ रहे हैं, जो उन्हें छोटे-छोटे रोजगार दिला सकते हैं, लेकिन ज्ञान पाकर खुद को समृद्ध बनानेवाले विषयों से उनका लगाव कम होता जा रहा है. इसका कारण यह है कि इतिहास के पन्नों से ज्ञान अजिर्त करनेवाले, साहित्य की जानकारी रखनेवाले छात्रों के लिए आगे बढ़ने के अच्छे अवसर बाजार में उपलब्ध ही नहीं हैं.
इन परिवर्तनों के लिए विद्यार्थी जिम्मेवार नहीं हैं. नयी आर्थिक व्यवस्था ने विद्यार्थी और शिक्षक दोनों के ही सामने एक ऐसा चुनौतीपूर्ण परिदृश्य खड़ा कर दिया है, जिसमें सुधार करना विद्यार्थी और शिक्षक दोनों के ही स्तर पर काफी मुश्किल हो गया है. इस स्थिति में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए समाज में चेतना के स्तर पर जागरुकता लानी होगी. विद्यार्थी और शिक्षक दोनों को भौतिकता की अंधी दौड़ से बचना होगा, क्योंकि यह दौड़ उन्हें किसी मंजिल तक नहीं पहुंचायेगी, बल्कि उन्हें थका कर एक असंतोषजनक स्थिति के भंवर में छोड़ देगी.
(प्राची खरे से बातचीत पर आधारित)