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आयोग के गठन में हड़बड़ी ठीक नहीं
नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन एक्ट की अधिसूचना जारी होने के साथ ही उच्च अदालतों के जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली एकबारगी समाप्त हो गयी है. नयी न्यायिक नियुक्ति प्रणाली की वैधानिकता को पहले ही कुछ याचिकाओं में चुनौती दी गयी है. इन पर सुप्रीम कोर्ट में 15 अप्रैल को सुनवाई होनी है. बेहतर तो […]
नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन एक्ट की अधिसूचना जारी होने के साथ ही उच्च अदालतों के जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली एकबारगी समाप्त हो गयी है. नयी न्यायिक नियुक्ति प्रणाली की वैधानिकता को पहले ही कुछ याचिकाओं में चुनौती दी गयी है.
इन पर सुप्रीम कोर्ट में 15 अप्रैल को सुनवाई होनी है. बेहतर तो यही होता कि सरकार एक्ट की अधिसूचना जारी करने में धीरज का परिचय देते हुए सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई का इंतजार करती. इससे न्यायापालिका के दायरे में विधायिका के हस्तक्षेप की आशंका को नकारने में मदद मिलती. कारण, पूरा मामला संवैधानिक प्रावधान की व्याख्या से जुड़ा है. दरअसल, नयी प्रणाली जजों की नियुक्ति में विधायिका के दखल को संभव बनाती है.
मसलन, गठित होनेवाले आयोग में मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ न्यायाधीशों के अतिरिक्त केंद्रीय विधि और न्याय मंत्री तथा दो गणमान्य व्यक्ति सदस्य के रूप में शामिल किये जायेंगे, जिन्हें चीफ जस्टिस, प्रधानमंत्री तथा नेता-प्रतिपक्ष अथवा सदन में मौजूद सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता की सहमति से नामित किया जायेगा.
नामित एक सदस्य का अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अथवा अन्य पिछड़ा वर्ग का या फिर महिला होना जरूरी है. 1993 से चलन में आयी कॉलेजियम प्रणाली इससे अलग थी.
सरकार को हक था कि वह कॉलेजियम की अनुशंसा को एक दफे लौटा दे, लेकिन कॉलेजियम फिर से अनुशंसा करे, तो सरकार को उसे मानना पड़ता था. संविधान में स्पष्ट है कि जजों की नियुक्ति कार्यपालिका का प्रधान करेगा. अनुच्छेद 124 में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट तथा हाइकोर्ट के जजों से परामर्श के बाद करेगा. अनुच्छेद 217 में हाइकोर्ट के जजों की नियुक्ति के बारे में भी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त राज्य के राज्यपाल से परामर्श लेने की बात कही गयी है.
इसमें शक नहीं कि बीते समय में जजों की निष्ठा को लेकर प्रश्न उठते रहे हैं और कॉलेजियम प्रणाली ने इनका समाधान नहीं किया है. फिर भी चूंकि संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या का दायरा सुप्रीम कोर्ट का है, अच्छा होता कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आयोग के गठन के बारे में फैसला लेती.
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