वैसे तो यह कहानी दिल्ली की है, पर इसमें आपको अपनेशहर का भी अक्स नजर आयेगा.
।।किशोर।।
दिल्ली के उत्तर-पश्चिम में स्थित रोहिणी का इलाका एक नियोजित उपनगर है, जिसे दिल्ली विकास प्राधिकरण ने बसाया है. एक शहरी बस्ती की जरूरतों के हिसाब से हरेक चीज का ध्यान रखा गया है. थोड़ी-थोड़ी दूर पर सार्वजनिक पार्क हैं और हर एक-दो किलोमीटर पर एक बड़े सार्वजनिक पार्क की भी व्यवस्था है जिसे डिस्ट्रिक्ट पार्क कहते हैं. ऐसा ही एक डिस्ट्रिक्ट पार्क मेरे घर के पास है. यहां सैकड़ों लोग सुबह-शाम सैर और कसरत करने आते हैं. इसके अलावा, कुछ लोग योग करते हैं, तो कुछ लोग एकाग्रचित होकर ध्यान लगाने की कोशिश करते हैं, तो कुछ लोग भजन में अपना ध्यान लगाते हैं. सभी में एक समानता है कि वे सब अपनी सेहत के प्रति काफी सजग हैं. अपनी सेहत को लेकर लोगों में बढ़ी इस जागरूकता को व्यवसायी वर्ग ने बारीकी से पहचाना है. इस बाजार के कुछ नुमाइंदे सुबह-सुबह यहां भी आते हैं. कुछ वजन कम करने के नायाब तरीकों का प्रचार करते हैं, कुछ व्यायामशालाओं व हेल्थ स्पा का. कुछ पानी साफ करने के यंत्र बेचने में लगे रहते है, तो कुछ स्वास्थ्य बीमा योजना बेचने में.
सेहत के प्रति बढ़ी सजगता से आयुर्वेदिक, प्राकृतिक और जैविक उत्पादों की मांग में भी इजाफा हुआ है, सो पार्क के गेट पर कुछ दुकानें इनकी भी लगी होती हैं. साथ ही फलों और नारियल पानी के कई ठेले भी अपने दिन की शुरुआत यहीं से करते हैं. पार्क में घुसते-निकलते हुए किसी साप्ताहिक हाट के शोर-शराबे सा एहसास होता है. नि:शुल्क सेवा करनेवालों की भी यहां कमी नहीं है. कुछ लोगों ने मिल कर यहां मुफ्त में पेठे (भतुआ) का रस पिलाना शुरू किया. इन लोगों का मानना है कि सुबह एक कप पेठे का रस मधुमेह, रक्तचाप, हृदय रोग आदि में फायदेमंद है. इन दावों में कितना दम है, यह खोजने का समय किस के पास है? धीरे पेठे का रस पीनेवालों की कतार लंबी होने लगी और जल्द ही सैकड़ों लोग इस सेवा का लाभ उठाने लगे.
नि:स्वार्थ भाव से सेवा प्रदान करनेवाले अधिकतर स्वयंसेवी व्यवसायी वर्ग से ताल्लुक रखते हैं और तन, मन, धन लगा कर अपने मिशन में जुटे रहते हैं. पिछले दो- तीन सालों में इस नि:शुल्क सेवा का जिस तरह से विस्तार हुआ है, वह दिलचस्प है. शुरु आत एक मेज और उस पर रखे एक जूसर से हुई. मेज के साथ में एक-दो लोग जमीन पर बैठ कर जूस के लिए पेठा छीलते-काटते थे.
थोड़े दिनों बाद एक और मेज लगायी गयी, जिससे ग्रीन-टी बांटी जाने लगी. जाहिर है चाय बनाने के लिए गैस स्टोव, बरतन आदि की जरूरत पड़ेगी और उन्हें रखने के लिए जगह की. सुबह सैर करनेवालों में थोड़े-थोड़े दिनों बाद अपना वजन नापने की उत्सुकता रहती है कि वजन कम हुआ या बढ़ा. इसी उत्सुकता को ध्यान में रखते हुए वहां एक वजन नापने की मशीन भी रखी जाने लगी. थोड़े दिनों बाद एक सीडी प्लयेर और दो स्पीकर लगाये गये जहां रोज सुबह भजन चलने लगे. अभी तक जो शोरशराबा पार्क के गेट तक सीमति था, अब वह पार्क के अंदर भी पहुचने लगा. अगर आप सुबह शांति से सैर करने के मकसद से आये हैं, तो यह जगह आपके लिए उपयुक्त नहीं रही.
थोड़े दिनों बाद जूस वाली मेज के पीछे एक और मेज लगने लगी. इस पर भगवान की तसवीरें लग गयीं. अब रोज सुबह जूस निकालने के बाद पहले भगवान की पूजा होती है, जूस के पहले कप का भगवान को भोग लगाया जाता है, जय श्रीराम और जय शेरावाली के नारों का उद्घोष होता है और उसके बाद जनता के लिए नि:शुल्क सेवा शुरू होती है. नारा लगते समय वहां मौजूद जनता भी पीछे-पीछे जय श्रीराम के नारे लगाती है और पूरा माहौल राममय हो जाता है. जूस के हर कप के साथ जूस देनेवाला जय श्रीराम बोलता है और जूस लेनेवाला उसको दोहराता है. 25-30 वर्ग फुट के साथ शुरू हुई इस सेवा का अब लगभग 100 वर्ग फुट पर कब्जा है. कभी-कभी व्यवस्था बनाये रखने की खातिर इस जगह को रस्सियों से घेरा भी जाता है. पिछले दिनों किसी धार्मिक उत्सव के अवसर पर यहां भंडारे का आयोजन भी किया गया था. भंडारा बनाने के लिए पार्क के एक हिस्से को घेरा गया था और भंडारा वितरण के लिए पार्क के बाहर पटरी के एक बड़े हिस्से को. मतलब कि सार्वजनिक जगह पर यह सामूहिक कब्जा ठीक उस तरह बढ़ता गया जैसे कि हनुमान जी कि मूर्ति स्थापना से लेकर मंदिर निर्माण तक होता है.
कोई भी प्रश्न पूछ सकता है कि अगर यह समूह सामाजिक कार्य के लिए सार्वजनिक जगह का उपयोग कर रहा है तो किसी को क्या ऐतराज. यहां मैं सामाजिक कार्य के चरित्र का थोड़ा विश्लेषण करना चाहूंगा. इस सामाजिक कार्य से पहले एक धर्म विशेष के तौर-तरीकों से पूजा होती है, नारे लगाये जाते हैं और जूस का हर कप लेनेवाले को जय श्रीराम या जय माता दी बोलना होता है. अगर आप उस नारे को नहीं दोहराते तो जूस देनेवाला आपको आश्चर्यपूर्ण नजरों से ताकता है कि आवाज नहीं आयी. एक जूस देनेवाले ने मुङो टोका, तो मैंने कहा कि मेरी किसी भी धर्म के प्रति आस्था नहीं है. उसने पलट के कोई जवाब तो नहीं दिया, पर उस दिन के बाद मुङो अलग तरीके से देखा जाने लगा. वहां का माहौल कुछ ऐसा है जिससे लगता है कि मैं वहां बिन बुलाये मेहमान की तरह हूं. कुछ ऐसी ही नजरों से यहां रिक्शा या ठेलावालों को भी देखा जाता है .
मैं तो फिर भी जन्म से हिंदू हूं. मेरे नाम, रहन-सहन, पहनने-ओढ़ने के तरीके से कहीं भी जाहिर नहीं होता कि मैं हिंदू नहीं हूं, पर फिर भी मैं इस समाज का हिस्सा नहीं हूं. इस सामाजिक कार्य के माहौल में असहज महसूस करता हूं. कल्पना कीजिए एक इनसान की जिसकी दाढ़ी है और सिर पर टोपी है, तो वह इस माहौल में कैसा महसूस करेगा. कहने को पार्क एक सार्वजनिक स्थल है जहां बिना किसी भेदभाव के कोई भी आ-जा सकता है, पर सामाजिक कार्य के नाम पर किये जानेवाले इस तरह के आयोजन और सार्वजनिक जगहों पर इस तरह का सामूहिक कब्जा एक समुदाय विशेष के बाहर के लोगों के लिए असहजता पैदा कर सकता है. अगर सार्वजनिक जगहों पर भी आने-जाने में हिचक होने लगे, तो उनकी सार्वजनिकता पर प्रश्न चिह्न् लगते हैं.
सार्वजनिक जगहों पर सामूहिक कब्जे का यह इकलौता उदाहरण नहीं है. रोहिणी इलाके में ही एक और सार्वजनिक पार्क है जिसे जापानी पार्क कहा जाता है. पिछले दिनों अखबारों में यह खबर आयी कि यह पार्क सुबह 11 बजे से शाम 5 बजे तक बंद रहेगा और इस बीच अगर किसी को पार्क में जाना हो, तो उसे पुलिस चौकी से इजाजत लेनी होगी. ये निर्णय दिल्ली विकास प्राधिकरण ने उस इलाके की रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (आरडब्ल्यूए) के आग्रह पर लिया. उसकी शिकायत थी कि दिन में यहां प्रेमी युगल आते हैं और पार्क का माहौल दूषित करते हैं. गौरतलब है कि इस सार्वजनिक पार्क पर जितना हक आरडब्ल्यूए का था, उतना ही उन प्रेमी युगलों का भी था जो इस पार्क में आते थे. पर ऐसा लगता है कि इन र्वजनिक पार्को पर आरडब्ल्यूए जैसी सामूहिक संस्थाओं का हक ज्यादा है, इसलिए वह प्रेमी युगलों को खदेड़ने में कामयाब रही. सार्वजनिक जगहों पर सामूहिक कब्जे के उदाहरण आरडब्ल्यूए द्वारा मोहल्लों में सुरक्षा के नाम पर लगाये हुए विशालकाय गेट भी हैं. मेरे घर के नजदीक एक सड़क पहले रात को 12 बजे के बाद बंद होती थी. अब यह समय 10.30 बजे हो गया है. यानी इसके बाद पाबंदी.
(काफिला वेबसाइट से साभार)