एमजे अकबर
प्रवक्ता, भाजपा
टिकरित पर फिर से कब्जा, असल में एक संयुक्त कार्रवाई है, जिसमें जमीन पर इराकी हमले का नेतृत्व ईरानी अफसरों तथा सैनिकों के द्वारा किया जा रहा है, जबकि अमेरिकी वायुसेना हवाई समर्थन दे रही है. अमेरिका और ईरान के बीच होनेवाले परमाण्विक समझौते के पीछे कुछ बड़ी सोच के साथ-साथ सहयोग के हालिया अनुभव के रणनीतिक फायदे हैं.
स्थिरता एक ऐसा भ्रम है, जिसे राष्ट्रों द्वारा अपने नागरिकों को दिलासा देने के लिए प्रचारित किया जाता रहा है. कई देश या तो अपनी सरकारों के नियंत्रण के बाहर रहे गुरुत्वाकर्षण खिंचाव से डूब जाते हैं, अथवा एक नैतिक सीढ़ी के पायदान चढ़ जाते हैं. हालांकि इन गतियों की रफ्तार अमूमन धीमी या कभी-कभी आंखों से ओझल भी रहती है, मगर यह तो तय है कि समाज कभी गतिहीन नहीं रहता.
21वीं सदी के शुरुआती पंद्रह वर्षो में, अफ्रीका के अटलांतिक तट से लेकर जापान के प्रशांत तट तक लगातार फैला सीधा भूभाग एक रपटीली राह पर चल पड़ा है. इसका पश्चिमी हिस्सा एक दलदल में फंसता जा रहा है, जबकि भारत से शुरू होनेवाला इसका पूर्वी भाग उससे क्रमश: ऊपर निकल रहा है. हो सकता है, यह तसवीर सब तरफ समान रूप से लागू न होती हो और इसके कुछ अहम अपवाद भी हों, लेकिन यह एक मोटी सच्चाई तो है ही.
इस मामले में इजराइल एक अपवाद होने से बढ़ कर एक नायाब इलाका है. मिसाल के तौर पर तेल अवीव में अचल संपत्ति की बढ़ती कीमतों को लिया जा सकता है. यहां आप ऐसा महसूस करेंगे, मानो दुनिया के सबसे खतरनाक पड़ोस के तोपखाने की जद में बसे एक शहर में नहीं, बल्कि यूरोप के किसी शांत भूभाग में कोई अपार्टमेंट खरीद रहे हों. अपने चारों ओर की सियासत की वजह से इजराइल की भू-राजनीति बदल चुकी है.
इजराइल आज भी अग्रिम पंक्ति में बना हुआ है, उसमें कोई बदलाव शायद ही संभव हो सकेगा, मगर कई तरह की जंग से तबाह हो चुकने के कारण इस इलाके में उसकी मौजूदगी अब गौण बन चुकी है. इजराइल के नेता बेंजामिन नेतन्याहू भले ही लफ्फाजी का सहारा लेते रहें, लेकिन समझदारी से काम लेकर इजराइल अपनी सुरक्षा का पूरा ख्याल रखते हुए इस झमेले से अलग-थलग, पर एक सतर्क तमाशाई की भूमिका में है. अब इजराइल के लिए अपने दुश्मनों को कमजोर करने की जरूरत नहीं रही. वे खुद ही बेहतरीन तरीके से खुद को कमजोर करने में लगे हैं.
इजराइल के चारों ओर फैली लड़ाइयां अब राष्ट्रीय सरहदों की मोहताज नहीं रहीं, जो ऑटोमन साम्राज्य के पतन के साथ लंबे अरसे के बिखराव के दौरान औपनिवेशिक मालिकों के हुक्म से ज्यादातर सरल रेखाओं की शक्ल में खिंची हैं. तनाव की सीमा रेखाएं भौगोलिक होने के बजाय जनसांख्यिक हैं, जो बहुत पुरानी होड़ की प्रतिक्रिया से पैदा आदर्शो की वजह से और भी जटिल बन गयी हैं. बहुत-से सुन्नी मुसलिम देश, जिनमें अरब और गैर अरब दोनों शामिल हैं, एक ऐसा कौमी राज्य बना पाने की अपनी नाकाबिलियत की वजह से गृहयुद्ध में उलझ गये हैं, जो भरोसेमंद सियासी और कानूनी तंत्र द्वारा अवाम की इच्छा से उसकी भलाई करते हुए अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी कर सके. कुछ इलाकों में तो यह बदहाली सुधार की सीमा से बाहर पहुंच चुकी है.
आइएसआइएस का उदय पैबंद लगाने की इसी स्थिति का एक उग्र उदाहरण है, जिसे इतिहास के मलबे और टुकड़े-टुकड़े की गलतियों से जोड़तोड़ कर तैयार किया गया है. वैसी क्षेत्रीय तथा विश्व शक्तियां, जिन्होंने कभी इस उग्रवादी खतरे को यह सोच कर वित्तीय और शस्त्रों की मदद पहुंचायी कि वह उनके दुश्मनों को तबाह करेगा, आज समझ चुकी हैं कि वह अपने मददगारों के लिए भी उतना ही नुकसानदेह है.
इस खतरे का कम-से-कम इतना फायदा तो हुआ कि इसने ऐसे गठबंधनों को बढ़ावा दिया है, जिनकी पहले कल्पना तक नहीं की जा सकती थी. इनमें निश्चित रूप से सबसे ज्यादा दिलचस्प वाशिंगटन और तेहरान के बीच आइएसआइएस को लेकर बनी अनकही रजामंदी है. ये गठबंधन विभिन्न नजरिये से और जंग के बाद की विभिन्न परिस्थितियों से बने हैं, जिनकी अपनी अलग परेशानियां पैदा हो सकती हैं.
मगर फिलहाल तो वे ऐसे साझीदार हैं, जो अपनी सीमित रजामंदी को वैध शक्ल देने के रास्ते तलाश रहे हैं. टिकरित पर फिर से कब्जा, असल में एक संयुक्त कार्रवाई है, जिसमें जमीन पर इराकी हमले का नेतृत्व ईरानी अफसरों तथा सैनिकों के द्वारा किया जा रहा है, जबकि अमेरिकी वायुसेना हवाई समर्थन दे रही है.
अमेरिका और ईरान के बीच होनेवाले परमाण्विक समझौते के पीछे कुछ बड़ी सोच के साथ-साथ सहयोग के इसी हालिया अनुभव के रणनीतिक फायदे हैं. ईरानी चाय तथा अमेरिकी होंठों के बीच कभी कोई भी आकस्मिकता आ खड़ी हो सकती है, किंतु संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्य अभी से ही इस मुद्दे पर बातचीत शुरू कर चुके हैं कि परमाण्विक करार हो जाने की सूरत में ईरान पर लगे प्रतिबंध उठा लिये जाएं.
सबसे अच्छी तस्वीर तो यह बन सकती है कि अमेरिका और ईरान मिल कर इराक में लगी हिंसक आग बुझाएं. दोनों में से कोई भी इसे अकेले नहीं कर सकता; ईरान के पास वह साजो-सामान है, जिसे पेंटागन, अस्थायी रूप से ही सही, मगर खो चुका है. दोनों में से कोई भी इस खतरे को नजरअंदाज नहीं कर रहा, क्योंकि आइएसआइएस की छूत इतने बड़े नतीजों के साथ फैल सकती है कि उसके सामने अलकायदा बहुत छोटी-सी चीज नजर आयेगा. अब हम आतंकवादियों द्वारा भेजे आत्मघाती दलों की बात नहीं कर रहे, जो अरब तट से अंदर के इलाकों और उससे भी आगे की ढहती सरकारों द्वारा छोड़े गये खालीपन पर जेहाद के नाम पर कब्जा करनेवाली सेनाओं से मुखातिब हैं.
विभिन्न विरोधी हितों द्वारा महसूस की गयी कोई भी अस्थायी परेशानी इस बड़े लक्ष्य के लिए चुकायी गयी मामूली कीमत ही होगी. आइएसआइएस की चतुर्दिक फैलती अराजकता की कीमत का अंदाजा लगा पाना मुश्किल होगा. यह एक ऐसा काम नहीं है, जो बराक ओबामा के बचे हुए कार्यकाल में पूरा हो सकेगा, मगर यदि वे इसकी शुरुआत नहीं कर सके, तो यह उनके उत्तराधिकारी के लिए भी मुमकिन नहीं हो पायेगा.
पश्चिमी एशिया में हुए तीन अरब-इजराइल युद्ध, लेबनान की पेचीदा अशांति और फिलस्तीन के लिए बहुआयामी लड़ाइयों के बाद भी कायम रहे हितों के जिस संतुलन ने शिया-सुन्नी शांति सुनिश्चित की थी, जो इस लंबे नाटक की एक दिलचस्प छोटी कथावस्तु है, उसमें अमेरिका और ईरान के बीच 1979 के मनमुटाव और उसी साल अफगानिस्तान में सोवियत आक्रमण ने सुधार ला दिया था. सोवियत सैनिक कब के वापस लौट चुके, उनका संघ भी समाप्त हो चुका, लेकिन नतीजे बरकरार हैं.
यह तो निश्चित नहीं है कि अमेरिकी-ईरानी परमाण्विक समझौता भी इस स्थिति को किसी सार्थक सुलह तक पहुंचा सकेगा, किंतु इतना तो कहा ही जा सकता है कि चीजें अभी जिस हालत में हैं, उससे अधिक बदहाल तो नहीं हो सकतीं. अंतरराष्ट्रीय जीवन का एक बुनियादी नियम है कि पूर्णता की तलाश में अच्छे को मत छोड़ो. फिलहाल तो यह अच्छा ही काफी है.
(अनुवाद : विजय नारायण)