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जगानेवालों को सुलाने की ‘बोली’

रंजन राजन प्रभात खबर, दिल्ली आखिरकार ‘महा नीलामी’ खत्म हुई. पूरी दुनिया ने भारत के विकास का यह नया चेहरा देखा कि अब यहां उतरन भी करोड़ों में बिक जाती है. 24×7 जागने-जगानेवाले राष्ट्रीय मीडिया की दिलचस्पी लगातार यही जानने-बताने में रही कि नमो-नामी सूट की बोली कितने करोड़ तक पहुंची. तीन दिनों तक महा […]

रंजन राजन
प्रभात खबर, दिल्ली
आखिरकार ‘महा नीलामी’ खत्म हुई. पूरी दुनिया ने भारत के विकास का यह नया चेहरा देखा कि अब यहां उतरन भी करोड़ों में बिक जाती है. 24×7 जागने-जगानेवाले राष्ट्रीय मीडिया की दिलचस्पी लगातार यही जानने-बताने में रही कि नमो-नामी सूट की बोली कितने करोड़ तक पहुंची. तीन दिनों तक महा नीलामी का ‘महा कवरेज’ देख-सुन कर थक-पक गये लोगों ने राहत की सांस ली. लेकिन, इसी बीच ‘विकास की राह में रोड़ा’ बने एक 82 वर्षीय योद्धा की सांस सदा के लिए थम गयी.
महाराष्ट्र में टोल टैक्स के खिलाफ लोगों को जगा रहे सीपीआइ नेता, वकील और ‘बेस्ट सेलिंग बुक्स’ के लेखक गोविंद पानसरे की गर्दन छेदनेवाली उस गोली के लिए कितने की बोली लगी और किसने लगायी, यह पता लगाने में मीडिया की कोई दिलचस्पी नहीं है. पानसरे कोल्हापुर में सुबह सैर के लिए निकले थे. तभी दो बाइक सवारों ने उन्हें निशाना बनाया. धर्म-जाति की सीमा से परे रह कर गरीबों को सम्मान दिलाने की उनकी लड़ाई अब एक याद बन गयी है, यह संदेश देते हुए कि विकसित होते देश में दो तरह की सड़कें बनती रहेंगी. अच्छी सड़कों पर सिर्फ वही चलेंगे, जिनकी जेबें मनमाना टोल टैक्स चुकाने में सक्षम होंगी. पानसरे कुछ ऐसे संगठनों की पोल खोलने में भी जुटे थे जो इस देश में गांधी की जगह गोडसे को स्थापित करना चाहते हैं.
यह घटना उस महाराष्ट्र में हुई जहां देश की आर्थिक राजधानी है, जहां सपनों का एक ऐसा बाजार है जिसमें लगनेवाली बोली के उतार-चढ़ाव से ही देश की आर्थिक सेहत का हाल मापा जाता है. पानसरे की हत्या से बेखबर यह बाजार चढ़ रहा है. यह वही महाराष्ट्र है, जहां एक मायानगरी भी है, जिसमें ऐसे सितारे बसते हैं जिन्हें करोड़ों लोग ‘फॉलो’ करते हैं. इन सितारों के लिए पानसरे की हत्या ‘ट्वीटेबल सब्जेक्ट’ नहीं है.
उनकी ‘वॉल’ पर शोक या विरोध के शब्द नहीं हैं. इसी महाराष्ट्र के पुणो में डेढ़ साल पहले अंधविश्वास के विरोध के प्रतीक 67 वर्षीय डॉ नरेंद्र दाभोलकर की हत्या भी इसी तरह सुबह की सैर के वक्त कर दी गयी थी. दाभोलकर की हत्या के बाद पानसरे ने अंधविश्वास विरोधी विधेयक पारित करने के लिए राज्य सरकार पर दबाव बनाया था. दाभोलकर के हत्यारे भी अब तक पकड़ में नहीं आये हैं. दोनों के हत्यारों के तार आपस में जुड़े हैं या नहीं, यह भले जांच का विषय हो, लेकिन ऐसी हत्याओं का संदेश साफ है- देश में जो सच्चई और हक की बात करेगा, उसे ‘ठोक’ दिया जायेगा.
तो बड़ा सवाल यह है कि लोकशाही में सिर उठाती इस ‘ठोकशाही’ के डर से क्या अब जागने-जगाने का काम टीवी चैनलों, करोड़ों फॉलोअर्स वाले सितारों और तरक्की को मापनेवाले बाजार पर ही छोड़ देना चाहिए? मुङो चिंता अन्ना जी की भी हो रही है. वे भी महाराष्ट्र के हैं और अब देश के गरीब किसानों को जगाने निकले हैं.

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