।। शीतला सिंह ।।
(जनमोर्चा के संपादक)
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-8 (4) को संविधानेतर घोषित कर दिया गया है. यह व्यवस्था दी गयी है कि जेल में रहकर कोई भी व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता है. इस आदेश से राजनीतिक दलों में खासी गहमा–गहमी है, क्योंकि इससे कोई एक दल प्रभावित नहीं हो रहा है. दागी उम्मीदवारों की संख्या सभी दलों में 15 प्रतिशत से ऊपर और कुछ में तो 30 प्रतिशत तक है.
अभी जो राष्ट्रीय चुनाव का विश्लेषण किया गया उसमें एक नया तथ्य यह उजागर हुआ है कि इन दागी उम्मीदवारों को जनता भी पसंद करती है. जितने बड़े अपराधी के रूप में उन्हें प्रस्तुत किया जाता है, उनके चुनाव जीतने का अंतर भी उसी अनुपात बढ़ जाता है. इसके साथ ही चुनाव लड़ना और जीतना धनवान बनने का भी एक साधन है.
राजनीति को व्यवसाय न भी कहें तब भी चुनाव जीतने वालों की स्थिति में तेजी से बदलाव आता है. यह विभिन्न चुनावों के दौरान उनके द्वारा दाखिल किये गये संपत्ति के आंकड़ों से सिद्घ होता है. हालांकि यह निष्कर्ष निकालना शेष है कि अधिक मतों से जीतना लोकप्रियता का प्रमाण है या इन अपराधी चरित्र के लोगों से मतदाता भी डरता और घबराता है, इसलिए उसे वोट देता है!
जहां तक राजनीतिक दलों के विचारों और मान्यताओं का संबंध है, वे सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर अमल करने के लिए फिलहाल तैयार नहीं हैं. इसके पहले भी जब सर्वोच्च न्यायालय की ओर से विधायिका से यह अपेक्षा की गयी थी कि वह ऐसा कानून बनाये जिससे अपराधी चुनाव न लड़ पायें, तो आपस में एक दूसरे के खिलाफ और अपना दुश्मन बताने वाले भी एक साथ हो गये थे. उनका तर्क है कि निलंबित अधिकारी की सेवाएं समाप्त नहीं मानी जातीं, तो निचली अदालत से सजा पाये व्यक्ति की क्यों मानी जाये और उसे क्यों चुनाव लड़ने से रोक दिया जाये! अगर ऊपर की अदालत उसे बरी कर दे, तो क्या उसकी भरपाई का कोई माध्यम है? क्योंकि चुनाव तो निश्चित अवधि पर ही और निश्चित कार्यकाल के लिए होते हैं.
न्यायपालिका के लोग सेवाओं में चयन की पद्घति से आते हैं, उन्हें जनता जैसी बड़ी अदालत का सामना नहीं करना पड़ता. जब लोकतंत्र में यह माना जाता है कि अदालत से भी बड़ी जनता की अदालत है तो उसके निर्णयों पर कानून के नाम पर आपत्ति उठाना और निर्थक बनाना क्या उचित माना जायेगा! यह तो लोकतंत्र की मूल भावना के ही खिलाफ होगा कि जनता पर नौकरशाहों की इच्छा और उनके द्वारा निर्धारित मानक लागू होते हैं!
इसलिए वे भले ही महत्वपूर्ण पदों पर हों, उन्हें व्याख्या का अधिकार भी दिया गया हो लेकिन उन्हें विधायी शक्ति के लिए पात्र नहीं माना गया है. इसलिए उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय जिन्हें संविधान और कानूनों की व्याख्या करने का अधिकार है, लेकिन उन्हें उसमें ‘कौमा’ और ‘पूर्ण विराम’ लगाने या उसे बदलने की छूट नहीं है. इस काम के लिए जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों को ही विधायी शक्ति दी गयी है. इसलिए माना यही जाता है कि लोकतंत्र में संविधान या कानून भी जनता की आवश्यकताओं के आधार पर ही बनते हैं, इसीलिए इनमें निरंतर परिवर्तन की संभावना होती है और इसके लिए संघर्ष, अभियान या आंदोलन चलाना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अंग है, उसका विरोध नहीं.
राजनीति को पेशा नहीं बल्कि सेवा माना गया है और इसके लिए लाइसेंस देने वाला कोई संस्थान नहीं. यदि उसको चुनाव लड़ने से रोक दिया जाये, लेकिन सुनवाई या अपील में वह निदरेष निकला तो चुनाव में भाग लेने का अवसर उसे बाद में ही मिलेगा. ऐसे में राजनीति या सेवा पर प्रतिबंध किन कारणों से कैसे लगाया जाये, इस पर विचार करना होगा, क्योंकि कोई स्वतंत्रता निर्बाध नहीं हो सकती. मूल अधिकारों में भी सेवा और संगठन के प्रश्न पर जिन आठ कारणों से प्रतिबंध हो सकता है, उसमें सजा या दंड शामिल नहीं है.
एक दूसरे नजरिये से देखें तो सर्वोच्च न्यायालय को यह विसंगति नहीं दिखी कि जिला परिषद, विधान परिषद और राज्यसभा के निर्वाचन जिस पद्घति से होते हैं, उसमें मतदाताओं के 50 प्रतिशत से अधिक वोट पाने वाले ही चुने जाते हैं. यदि जनता दागी उम्मीदवारों से डर या आतंक के कारण उन्हें चुनती है तो उसे समाप्त करने के लिए जीतने का अनुपात 50 प्रतिशत से अधिक करना और मतदान को अनिवार्य करना भी एक रास्ता हो सकता है. आदर्श लोकतंत्र की मान्यताएं अलग–अलग तो हो सकती हैं लेकिन स्वीकार्य तो वही होगा जिसके साथ जनता का बहुमत हो.