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दाग धोने नहीं, बचाने की कोशिश!

* सर्वदलीय बैठक के फैसले बेशक लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है, पर इसलिए नहीं कि यहां बैठनेवालों को ही विराट समाज की दशा–दिशा तय करने का अंतिम अधिकार है. संसद सर्वोच्च है, क्योंकि यहां जनआकांक्षाओं की अभिव्यक्ति और टकराहट होती है तथा उसका सम्मानजनक हल तलाशा जाता है. जनप्रतिनिधियों की यह महापंचायत जनभावनाओं को जिस […]

* सर्वदलीय बैठक के फैसले

बेशक लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है, पर इसलिए नहीं कि यहां बैठनेवालों को ही विराट समाज की दशादिशा तय करने का अंतिम अधिकार है. संसद सर्वोच्च है, क्योंकि यहां जनआकांक्षाओं की अभिव्यक्ति और टकराहट होती है तथा उसका सम्मानजनक हल तलाशा जाता है. जनप्रतिनिधियों की यह महापंचायत जनभावनाओं को जिस सीमा तक प्रतिबिंबित करने में सफल होगी, उसी सीमा तक संसद की सर्वोच्चता की दावेदारी जायज कहलायेगी. एक जीवंत लोकतंत्र की पहचान यही है कि वह अपनी सारी संस्थाओं के दावों की बारंबार परीक्षा लेता है.

परीक्षा की ऐसी ही एक घड़ी अभी आयी थी, जब हमारे राजनेता समवेत स्वर में संसद की सर्वोच्चता की दावेदारी को पुख्ता बना सकते थे, मगर अफसोस कि उन्होंने जनता की नजर में गिरती अपनी साख को और नीचे गिरानेवाले फैसले लिये. पहला, राजनीतिक दलों ने खुद को सूचना का अधिकार कानून से बाहर रख कर जताना चाहा है कि वे कामकाज में प्रश्नों से परे स्वयंभू सरीखे हैं.

दूसरा, मॉनसून सत्र से पहले सर्वदलीय बैठक में राजनेताओं ने सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय को नकारने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसमें जेल से चुनाव लड़ने पर रोक और दो साल से ज्यादा की सजा पर सदस्यता खत्म होने की बात कही गयी थी. संसद को अधिकार है कि वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्प्रभावी करने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून के उस प्रावधान को बदल दे, जिसे आपत्तिजनक मान कर कोर्ट ने फैसला सुनाया था.

राजनीतिक दलों की यह चिंता जायज है कि लोकतंत्र में किसी के चुनाव लड़ने पर पाबंदी जैसा कदम उठाने से पहले सौ बार सोचना चाहिए. लोकतंत्र की सुरक्षा इस बात से सुनिश्चित होती है कि सरकारी रुख की मुखालफत में विपक्षी दल और नागरिक संगठन कितने सक्रिय हैं. ये सत्ता के विरोध में सड़क पर उतरें, तो आशंका रहती है कि इनके नेताओं की गिरफ्तारियां होंगी.

स्वामिभक्ति दिखाने की पुरानी आदत से मजबूर पुलिस महकमा उन पर संगीन मानी जानेवाली धाराओं में मामले दर्ज करेगा. ऐसे में गिरफ्तार नेताओं के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लोकतंत्र के लिए घातक हो सकती है. लेकिन राजनीतिक दल यह दलील उस वक्त दे रहे हैं, जब संसद में करीब एक तिहाई जनप्रतिनिधि दागी हैं.

जाहिर है, राजनीतिक दलों के फैसले में राजनीति को दागियों से मुक्त करने के बजाय कानून की आड़ लेकर अपने विशेषाधिकार की रक्षा करने की कोशिश दिखती है. लोकतंत्र को अपनी जागीर बनाने की ऐसी कोशिशें राजनीतिक दलों को जनता की नजर में और भी अविश्वसनीय बनायेगी.

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