इसे तुरंत एकत्र करना होता है और एक-दो दिनों में ही इसका व्यंजन बना लिया जाता है. वरना, बासी होने पर ये खराब हो जाता है. पहाड़ पर रह कर भी बहुत कम लोग ही इसका स्वाद ले पाते हैं, जो बिलकुल मांस जैसा गर्म और स्वादिष्ट होता है. कोई बीज नहीं, कोई छिलका नहीं. बस धोइए, दो टुकड़ों में काटिए और कड़ाही में डाल दीजिए. ग्रामीण लोग इसे घणगुड़ इसलिए कहते हैं कि घन (मेघ) बरसने पर अचानक धरती से प्रकट होता है और गुड़ की भेली की तरह गोल-गोल होता है. मुङो मित्रों के सौजन्य से इसके दर्शन करने और इसका व्यंजन चखने का कई बार सौभाग्य मिला है.
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बूंदता बिलैहैं बूंद बिबस बिचारी की
व्यावसायिक नगरों में मैथिल और भोजपुरी समाज श्रमिक-प्रधान समाज है, जिसके पास प्राय: द्रव्य का अभाव रहता है. बड़ी मुश्किल से यह समाज किसी साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन के लिए धन जुटाता है. गुजराती और मैथिल कई अर्थो में एक ही गोत्र-मूल के हैं. रांची में सुबह-सुबह मैं मुक्त भाव से हरमू चौक के पास क्रिकेट मैदान […]
व्यावसायिक नगरों में मैथिल और भोजपुरी समाज श्रमिक-प्रधान समाज है, जिसके पास प्राय: द्रव्य का अभाव रहता है. बड़ी मुश्किल से यह समाज किसी साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन के लिए धन जुटाता है. गुजराती और मैथिल कई अर्थो में एक ही गोत्र-मूल के हैं.
रांची में सुबह-सुबह मैं मुक्त भाव से हरमू चौक के पास क्रिकेट मैदान में घूम रहा था. वयस्क लोग टोली बना कर बैठे दिल्ली-चुनाव की सांगोपांग चर्चा कर रहे थे. भूतपूर्व नवयुवक मंकी टोपी में पूरा मुंड छिपाये जॉगिंग कर रहे थे. बदली घिरी हुई थी, ठंढी हवा भी चल रही थी. इसलिए लोग सिर से पांव तक गर्म कपड़ों से लदे हुए थे. ऐसे में मेरा कुर्ता-पाजामा और मामूली स्वेटर पहन कर ठाठ से घूमते देख कर पास से गुजरनेवाले हर व्यक्ति के मुख-मंडल पर आये आश्चर्य के भाव मुङो भीतर तक गुदगुदा रहे थे. मेरे लिए यह फगुनहट थी, क्योंकि मैं जहां रहता हूं, वहां ‘हड़कंपी’ यानी हाड़ कंपानेवाली हवा बहती है.
रांची शीत स्वभाव का शहर है. यहां भी जाड़े में तापमान इतना नहीं गिरता है कि लोग घर से न निकल पायें. इसलिए मैदान में लड़के-लड़कियां नेट प्रैक्टिस कर रहे थे और निर्धारित भ्रमण-वीथि पर लोग माला के मनके की भांति फिर रहे थे. कुछ बुजुर्ग निर्धारित शिलाखंडों पर बैठ कर अनुलोम-विलोम और कपालभाती प्राणायाम कर अपनी बची हुई सांसों का हिसाब जोड़ रहे थे. कुछ ऐसे प्राणी भी थे, जो प्राकृतिक आवश्यकता के वशीभूत होकर खड़े-खड़े बाउंडरी वाल भिंगो रहे थे. मुङो यह देख कर आश्चर्य हुआ कि उस क्रिकेट मैदान में या उसके आसपास एक भी शौचालय नहीं था. इतने बच्चे-बच्चियां, सांझ-सबेरे घूमनेवाले लोग उस मैदान में कहां जाकर शंका मिटाएं? हमारी प्लानिंग में सार्वजनिक स्थानों पर शौचालय और वेडिंग प्वॉइंटों पर कार-पार्किंग की सुविधा क्यों नहीं होती? स्वच्छता अभियान का झाड़ू यहां भी चला था, मगर यह दरुगध भरी गंदगी!
लोग जाड़े में पहाड़ पर जाने से घबराते हैं. मगर पर्वत का सात्विक सौंदर्य शीत ऋतु में ही परवान चढ़ता है; जब हिमपात होता है और पहाड़ हिमाच्छादित होते हैं. जब देवदार, शाल और चीड़ के हरे पत्ताें पर बर्फ की तहें जम जाती हैं. जाड़े के दिनों में चांदी की परतों से ढंकी पर्वत-चोटियों पर जब गेंदे की तरह पीली धूप उतरती है, तो सारा रजत-पत्र स्वर्ण-पत्र में बदल जाता है और हर चोटी ‘कंचनजंघा’ बन जाती है:
ओढ़ कर बैठे सभी ऊंचे शिखर/ बहुत महंगी धूप के ऊनी दुशाले।
रात कैसी सर्द बीती है/ कह रहे किस्स्से सभी सूने शिवाले।।
ऊपर से हिमपात हो रहा हो और आप बर्फ से पूरी तरह ढंकी सड़क पर पैदल चल रहे हों, तब देखिये कि नगपति हिमालय कितना दिव्य, मनोरम लगता है. तभी तो महादेव शिव और उनकी आद्याशक्ति पार्वती ने कैलाश पर्वत को अपनी लीलाभूमि बनायी. प्रदूषण न होने से पर्वतीय क्षेत्रों में कोहरे नहीं होते; इसलिए सुबह होते ही सूरज महाराज आपके दरवाजे पर दस्तक देते हैं और शाम तक आपके साथ ही विचरते हैं. जब सारा मैदानी क्षेत्र सूर्य भगवान के दर्शन के लिए तरस रहा हो, तब पहाड़ पर की कड़ी धूप बर्फीली हवा से घुल-मिल कर ही सह्य हो पाती है.
जाड़े में जब पहाड़ की ऊंचाइयों पर पहली बार मेघ बरसता है, तब एक अद्भुत घटना होती है, जिसे वहां के ग्रामीण जन ही देख पाते हैं. इसे आप मेघों के प्रति धरती का ‘शुकराना’ यानी कृतज्ञता-बोधक उपहार भी कह सकते हैं. वर्षा के बाद धरती के गर्भ से न जाने कैसे, जगह-जगह अंगूर के गुच्छे की तरह ‘घणगुड़’ निकलते हैं, जिन्हें बोलचाल में लोग ‘पुटपुट’ भी कहते हैं. इसका आकार बड़े अंगूर या छोटे आलू जैसा होता है.
पार्क में घूमते समय ही मुङो फोन से एक पर्वतीय मित्र ने बताया कि उसने सबेरे ढेर-सारे घणगुड़ बटोरे हैं. दोपहर में उसका व्यंजन और लाल चावल का भात बनेगा. मैं इतना दूर था कि उस अंतरंग निमंत्रण को स्वीकार नहीं पाया. रांची में झारखंड मैथिली मंच ने हर वर्ष की भांति सुरुचिपूर्ण कैलेंडर निकाला था. उसी के लोकार्पण का मैं साक्षी अतिथि बनने आया था. मजे की बात यह कि उसी दिन एक दूसरी मैथिली संस्था ने भी कैलेंडर का लोकार्पण किया था. सामाजिक कल्याण के लिए और भी दिशाएं हो सकती हैं. जब समाज-सेवा की दिशा भटकती है, तो पद-लिप्सा और आपसी रार बढ़ना अवश्यम्भावी है.
व्यावसायिक नगरों में मैथिल और भोजपुरी समाज श्रमिक-प्रधान समाज है, जिसके पास प्राय: द्रव्य का अभाव रहता है. बड़ी मुश्किल से यह समाज किसी साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन के लिए धन जुटाता है. खून-पसीना एक कर अर्जित उस धन का यदि उचित उपयोग न हुआ, तो यह दुर्भाग्य ही है. गुजराती और मैथिल कई अर्थो में एक ही गोत्र-मूल के हैं, मगर दोनों के विचार और जीवन-स्तर में बड़ा अंतर है. गुजराती कठिन समय में एक दूसरे का साथ देते हैं. अपनी अभ्युन्नति की दिशा तय करने के लिए मैथिल संस्थाओं को गुजराती संस्थाओं से सीखना है.
ब्रजभाषा के अंतिम सिद्ध-प्रसिद्ध कवि हुए हैं जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’; जिनका खंडकाव्य ‘उद्धव-शतक’ महाकवि सूरदास के भ्रमर-गीतों का नवीनतम विस्तार है. उसमें कृष्ण के आत्मीय सखा उद्धव जब ब्रजांगनाओं को सगुण-ससीम कृष्ण की जगह निगरुण-असीम ब्रrा की उपासना करने का उपदेश देते हैं, तो गांव की भोली-भाली गोपियां अपने तर्को से उन्हें निरुत्तर कर देती हैं. वे कहती हैं कि जब उस ब्रह्ना के हाथ-पैर ही नहीं हैं, तो वे हमारे किस काम के हैं?
कर बिनु कैसे गाय दुहिहैं हमारी ऊधो,
पग बिनु कैसे नाचि-थिरकि रिझाइहैं!
वे कहती हैं कि तुम्हारा ब्रह्ना सागर की तरह विराट है, हम छोटी-छोटी बूंदें हैं. हम बूंदों को समाहित कर सागर का कोई विस्तार नहीं होगा, बल्कि हम बूंदों का अस्तित्व ही मिट जायेगा. गोपियों के शब्दों में ही-
जैहैं बनि-बिगरि न बारिधिता/ बारिधि की/
बूंदता बिलैहैं/ बूंद बिबस बिचारी की..
मुङो लगता है कि हिंदी प्रदेशों की सभी भाषा-उपभाषाओं की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएं पूर्व जन्म में जरूर वही गोपियां रही होंगी, जिन्हें हमेशा अपनी बूंदता के बिलाने का डर सताता रहता है.
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
buddhinathji@gmail.com
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