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रोजगार गारंटी के विकल्प
डॉ भरत झुनझुनवाला अर्थशास्त्री नोबेल विजेता डॉ फेल्प्स का सुझाव है कि बेरोजगारी भत्ता या रोजगार गारंटी जैसी योजनाओं के स्थान पर उद्योगों को रोजगार सब्सिडी दी जाये. ऐसा करने से बड़े किसानों एवं उद्यमों के लिए श्रमिकों को रोजगार देना सस्ता हो जायेगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मनरेगा की गतिविधियों को प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई, […]
डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
नोबेल विजेता डॉ फेल्प्स का सुझाव है कि बेरोजगारी भत्ता या रोजगार गारंटी जैसी योजनाओं के स्थान पर उद्योगों को रोजगार सब्सिडी दी जाये. ऐसा करने से बड़े किसानों एवं उद्यमों के लिए श्रमिकों को रोजगार देना सस्ता हो जायेगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मनरेगा की गतिविधियों को प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई, इंदिरा आवास तथा अन्य कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ने को कहा है. यह कदम सही दिशा में है. सरकार ने मनरेगा को छोटा करने के विचार को त्याग दिया है. यूपीए सरकार ने इस योजना को देश के सभी 6,500 ब्लाकों में लागू किया था. एनडीए सरकार का मन था कि योजना सिर्फ 2,500 पिछड़े ब्लाकों में लागू हो. बाद में इस विचार को निरस्त करते हुए सरकार ने निर्णय लिया है कि योजना सभी 6,500 ब्लाकों में जारी रहेगी. दोनों ही निर्णयों का स्वागत होना चाहिए.
कोई संदेह नहीं कि मनरेगा से गरीबों को बहुत राहत मिली है. मनरेगा के लागू होने के बाद दो वर्षो के अंदर खेत मजदूरों की दिहाड़ी 120 रुपये से बढ़ कर 250 हो गयी थी. बिहार के श्रमिकों ने पंजाब जाना कम कर दिया था, क्योंकि उन्हें घर के पास रोजगार मिल रहा था. मनरेगा के सर्वत्र लागू रहने से गरीबों को मिलनेवाली राहत जारी रहेगी. अब तक मनरेगा में तमाम बेजरूरत कार्य करवाये जा रहे थे, लेकिन अब इस शक्ति का उपयोग सिंचाई कार्यो में करने से उपयोगी कार्य किये जा सकेंगे.
रोजगार गारंटी कार्यक्रम के अंतर्गत पहले सरकार द्वारा चालू उद्यम पर टैक्स लगाया जाता है. इस टैक्स के भार से कुछ उद्यम दबाव में आकर बंद हो जाते हैं, जिस कारण बेरोजगार लोगों की संख्या में वृद्धि होती है और रोजगार गारंटी कार्यक्रम पर भार बढ़ता है. बिहार के श्रमिक पंजाब नहीं गये, तो उनका अतिरिक्त बोझ रोजगार गारंटी कार्यक्रम पर आ पड़ा है.
इस बढ़ते खर्च की पूर्ति के लिए सरकार को चल रहे उद्यमों पर ज्यादा टैक्स लगाना पड़ता है. उद्यमी को भी दिहाड़ी ज्यादा देनी पड़ती है, जिससे दूसरे उद्यम बंद हो जाते हैं. टैक्स लगा कर वसूल की गयी रकम को सरकारी बाबुओं के माध्यम से गांव तक पहुंचाया जाता है. इस प्रक्रिया में रिसाव होता है. किसी प्रधान ने बताया कि कार्यक्रम में बाबू केवल ऐसे कार्यो की स्वीकृति देते हैं, जिनके लिए माल की सप्लाई में उन्हें कमीशन मिलता है. रिसाव एवं बाबुओं के प्रशासनिक खर्च काटने के बाद जो रकम बचती है, वह श्रमिकों को भिक्षा के रूप में मिलती है.
अमेरिका एवं यूरोपीय देशों में बेरोजगारी भत्ता कार्यक्रम का लगभग ऐसा ही प्रभाव पड़ा है. नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ एडमंड फेल्प्स ने स्पष्ट रूप से बताया है कि रोजगार सब्सिडी इस प्रकार देनी चाहिए कि लोग आत्मनिर्भर हो सकें. उन्होंने बताया कि अमेरिका एवं यूरोप में सामाजिक सुरक्षा एवं बीमा योजनाएं बड़े पैमाने पर लागू हैं, परंतु इनसे बेरोजगारी कम होने के स्थान पर बढ़ रही है. मुफ्त में मिल रही इस राहत को पाने के लालच में बेरोजगार को रोजगार ढूंढ़ने की प्रेरणा नहीं रह जाती है, सरकार पर उनकी निर्भरता बढ़ती है.
डॉ फेल्प्स का सुझाव है कि बेरोजगारी भत्ता या रोजगार गारंटी जैसी योजनाओं के स्थान पर उद्योगों को रोजगार सब्सिडी दी जाये. मसलन प्रत्येक श्रमिक के वेतन में 500 रुपये सरकार द्वारा दिये जा सकते हैं या प्रॉविडेंट फंड के श्रमिक तथा उद्यमी के योगदान को सरकार द्वारा दिया जा सकता है. ऐसा करने से बड़े किसानों एवं उद्यमों के लिए श्रमिकों को रोजगार देना सस्ता हो जायेगा.
रोजगार गारंटी के समर्थन में तर्क दिया जाता है कि इससे श्रमिकों की ऊंचे वेतन मांगने की ताकत बढ़ जाती है. जैसे बिहार के श्रमिक पंजाब जाने के लिए 200 रुपये के स्थान पर 300 रुपये की दिहाड़ी की मांग कर सकते हैं. इसमें एक समस्या है- मुंबई की कपड़ा मिलों में दत्ता सामंत के नेतृत्व में श्रमिकों ने ऊंचे वेतन की मांग की थी. फलस्वरूप मुंबई से यह उद्योग गुजरात को पलायन कर गया था.
रोजगार गारंटी के पक्ष में दूसरा तर्क है कि इससे गावं की क्रयशक्ति बढ़ रही है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में तेजी आयेगी. यह तर्क भ्रामक है, क्योंकि तेजी का अर्थ होता है उत्पादन एवं खपत के सुचक्र का स्थापित होना. जैसे किसान अंगूर उगाये और गांव के लोग उसे खायें, तो तेजी वास्तविक है. रोजगार गारंटी में ऐसे उत्पादन में वृद्घि नहीं होती है. जैसे प्रवासी बेटे द्वारा भेजी गयी रकम से बढ़ी हुई खपत को ‘विकास’ नहीं कहा जा सकता है, उसी प्रकार रोजगार गारंटी से मिली रकम को सच्ची आय नहीं कहा जा सकता है.
सरकार को चाहिए कि डॉ फेल्प्स द्वारा बतायी गयी रोजगार सब्सिडी की ओर ध्यान दे. योजना-राशि को इस प्रकार से वितरित करना चाहिए कि किसान तथा उद्यमी के लिए श्रमिक को रोजगार देना हल्का पड़े. जैसे पीएफ का हिस्सा उद्यमी को सरकार के द्वारा दिया जा सकता है. ऐसा करने से श्रमिक को रोजगार देने में उद्यमी की लागत कम आयेगी और वह मशीन के स्थान पर ज्यादा श्रमिकों को रोजगार देगा.
अथवा हार्वेस्टर जैसी रोजगार भक्षक मशीनों पर टैक्स लगाया जा सकता है. ऐसा करने से टैक्स की वसूली भी बढ़ेगी और रोजगार भी उत्पन्न होंगे. मनरेगा के अंतर्गत सरकारी रोजगार उत्पन्न करने के स्थान पर बाजार में रोजगार उत्पन्न करने के प्रयास करने चाहिए.
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