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अपने भस्मासुर से रूबरू पाकिस्तान

पश्चिमी लोकतंत्र पाकिस्तान के मिजाज से कितना मेल खाता है, इसकी परीक्षा भविष्य करेगा. उम्मीद है कि पाकिस्तान इस सदमे से सीख लेगा. बच्चों की मौत बेहद दुखदायी है, पर पाकिस्तानी ने जो बोया है उसे काटना भी पड़ेगा. पेशावर में स्कूली बच्चों की हत्या के बाद सवाल पैदा होता है कि क्या पाकिस्तान अब […]

पश्चिमी लोकतंत्र पाकिस्तान के मिजाज से कितना मेल खाता है, इसकी परीक्षा भविष्य करेगा. उम्मीद है कि पाकिस्तान इस सदमे से सीख लेगा. बच्चों की मौत बेहद दुखदायी है, पर पाकिस्तानी ने जो बोया है उसे काटना भी पड़ेगा.

पेशावर में स्कूली बच्चों की हत्या के बाद सवाल पैदा होता है कि क्या पाकिस्तान अब आतंकवादियों के खिलाफ कमर कस कर उतरेगा? वहां की जनता कट्टरपंथियों को खारिज कर देगी? क्या उन्हें 26/11 के मुंबई हमले और इस हत्याकांड में समानता नजर आयेगी? तमाम भावुक संदेशों और आंसू भरी कहानियों के बाद भी लगता नहीं कि इस समस्या का समाधान होगा. तहरीक-ए-तालिबान के खिलाफ सेना अभियान चलायेगी. उसमें भी लोग मरेंगे, पर यह अभियान आतंकवाद के खिलाफ नहीं होगा. उन लोगों के खिलाफ होगा जिन्हें व्यवस्था ने हथियारबंद किया, ट्रेनिंग दी और खूंरेजी के लिए उकसाया. इस घटना के बाद पाकिस्तानी अखबार ‘डॉन’ ने अपने संपादकीय में लिखा है, ‘ऐसी घटनाओं के बाद लड़ने की इच्छा तो पैदा होगी, पर वह रणनीति सामने नहीं आयेगी जो हमें चाहिए. फाटा (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरिया) में फौजी कार्रवाई और शहरों में आतंक-विरोधी ऑपरेशन तब तक मामूली फायर-फाइटिंग से ज्यादा साबित नहीं होंगे, जब तक उग्रवादियों की वैचारिक बुनियाद और उनकी सामाजिक पकड़ पर हमला न किया जाये.’

इस हत्याकांड पर पाकिस्तानी राजनेताओं की प्रतिक्रियाएं रोचक हैं. अवामी नेशनल पार्टी के रहनुमा गुलाम अहमद बिलौर ने कहा, ‘ये न यहूदियों और न ही हिंदुओं ने, बल्कि हमारे मुसलमान अफराद ने किया.’ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सीनेटर फरहत उल्ला बाबर ने कहा, ‘इस बात का हमें बरमला एतराफ करना पड़ेगा कि पाकिस्तान का सब से बड़ा दुश्मन सरहद के उस पार नहीं, सरहद के अंदर है. आप ही के मजहब की पैरवी करता है, आप ही के खुदा और रसूल का नाम लेता है, आप ही तरह है, हम सब की तरह है और वो हमारे अंदर है. शिद्दतपसंदों का नजरिया और बयानिया बदकिस्मती से रियासत की सतह पर सही तरीके से चैलेंज नहीं हुआ. शिद्दतपसंदों ने पाकिस्तानी सियासत में दाखिल होने के रास्ते बना लिए हैं.’

पाकिस्तानी राज-व्यवस्था इस मामले में डबल गेम खेलती रही है. यह गेम 9/11 के बाद से शुरू हुआ, जब परवेज मुशर्रफ ने अमेरिकी नाराजगी से बचने के लिए पाकिस्तान को औपचारिक रूप से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में शामिल किया. जनरल जिया-उल-हक इस भस्मासुर के लिए सैद्धांतिक जमीन तैयार कर गये थे. देश के पश्चिमी सीमा प्रांत की स्वात घाटी सरकार के नियंत्रण के बाहर है, पर सरकारी संरक्षण प्राप्त जेहादी राजधानी लाहौर के पास मुरीद्के में है लश्करे तैयबा का मुख्यालय. 1990 में जब लश्कर का जन्म हो रहा था नवाज शरीफ प्रधानमंत्री बन गये थे. उन्होंने लश्कर को हर तरह की मदद दी. वे खुद उसके मुख्यालय में गये. देश वहाबी विचारधारा का केंद्र बन गया है. 2007 में लाल मसजिद पर कार्रवाई का खामियाजा परवेज मुशर्रफ को आज तक भुगतना पड़ रहा है. सिर्फ उन्हें ही नहीं, उस से जुड़े मसलों के कारण 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी को पद से हटने को मजबूर कर दिया था. प्रधानमंत्री के सलाहकार सरताज अजीज ने पिछले महीने दिया था. उन्होंने कहा था कि हम उन शिद्दतपसंदों को क्यों निशाना बनाएं जो पाकिस्तान की सलामती के लिए खतरा नहीं हैं? इनमें से कुछ हमारे लिए खतरा हैं और कुछ नहीं हैं. तो हम सब को क्यों दुश्मन बनाएं?

वे अमेरिका की हित-रक्षा से घबराते हैं, भारत की तो बात ही दूसरी है. मई, 2011 में हमारे देश में कोई नहीं मानता था कि बिन लादेन के बाद अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद खत्म हो जायेगा. अल-कायदा का जो भी हो, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, तहरीक-ए-तालिबान और हक्कानी नेटवर्क वैसे ही बने रहेंगे. दाऊद इब्राहीम, हाफिज सईद और मौलाना मसूद अजहर को हम उस तरह पकड़कर नहीं ला पायेंगे, जैसे बिन लादेन को मार कर अमेरिकी फौजी चले गये. लादेन का सुराग देने वाले डॉक्टर को पाकिस्तानी न्याय-व्यवस्था ने सजा दी. लादेन की मौत के बाद लाहौर में हुई नमाज का नेतृत्व हाफिज सईद ने किया था. मुंबई पर हमले के सिलसिले में उनके संगठन का हाथ होने के साफ सबूतों के बावजूद पाकिस्तानी अदालतों ने उन पर कोई कार्रवाई नहीं होने दी. अमेरिका ने हाफिज सईद पर एक करोड़ डॉलर का इनाम रखा है, पर सरकार ने उसे पकड़ने की कभी कोई कोशिश नहीं की. अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की दो तिहाई मशीनरी पाकिस्तान में है. सरकार अमेरिका के साथ बेहतर रिश्ते रखना चाहती है, क्योंकि उसे देश चलाने के लिए पैसा अमेरिका से मिलता है. लेकिन कट्टरपंथी समूहों के साथ वह बिगाड़ नहीं कर सकती. दिफा-ए-पाकिस्तान काउंसिल नाम से 14 कट्टरपंथी संगठनों का समूह अमेरिकी झंडे जला कर अपने इरादे जाहिर कर चुका है. सीरिया से लेकर इराक तक हर जगह पाकिस्तानी लड़ाके शामिल हैं. लंदन से इंडोनेशिया तक की वारदातों के सूत्रधार वहीं विराजते हैं.

पाकिस्तान के आतंकी नेटवर्क को अमेरिकी विेषक एशले जे टैलिस ने पांच वर्गों में बांटा है- सांप्रदायिक : सुन्नी संगठन सिपह-ए-सहाबा, लश्कर-ए-झंगवी और शिया तहरीक-ए-जफरिया; भारत-विरोधी : कश्मीर को आधार बना कर सक्रिय गिरोह, जिन्हें खुफिया संगठन आइएसआइ का समर्थन प्राप्त है. इनमें लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हरकत-उल-मुजाहिदीन और हिज्ब-उल-मुजाहिदीन प्रमुख हैं; अफगान तालिबान : माना जाता है कि इस मूल तालिबान का मुख्यालय क्वेटा में है और इसकी ताकत कंधार के इलाके में है; अल कायदा और उसके सहयोगी; पाकिस्तानी तालिबान: फाटा में सक्रिय गिरोहों का समूह, जिसका मुखिया मुल्ला फजलुल्ला है. इन समूहों के अलावा हाल में इसलामी स्टेट ने भी पाकिस्तान में भरती शुरू कर दी है.

एक छोटा मध्यवर्ग पाकिस्तान को आधुनिकता के रास्ते पर ले जाना चाहता है. हमने टीवी से जो प्रतिक्रियाएं सुनीं, वे उसी छोटे तबके की थीं. पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत की मुख्य धारा का तो हमें कुछ पता ही नहीं. हाल में मलाला युसुफजई के नोबेल पुरस्कार मिलने की खबर पर मुख्यधारा के अखबारों में तारीफ के साथ विरोध के स्वर भी मुखर हुए थे. सोशल मीडिया पर अपमानजनक और व्यंग्यात्मक लहजे वाली टिप्पणियां भी देखने को मिली थीं. ‘पाकिस्तान ऑब्जर्वर’ अखबार के संपादक तारिक खटाक ने इस फैसले की आलोचना करते हुए कहा था, ‘यह एक राजनीतिक फैसला है और एक साजिश है.’ पश्चिमी लोकतंत्र पाकिस्तान के मिजाज से कितना मेल खाता है, इसकी परीक्षा भविष्य करेगा. उम्मीद है कि पाकिस्तान इस सदमे से सीख लेगा. बच्चों की मौत बेहद दुखदायी है, पर पाकिस्तानी ने जो बोया है उसे काटना भी पड़ेगा.

प्रमोद जोशी

वरिष्ठ पत्रकार

pjoshi23@gmail.com

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