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कश्मीर के हालात और विधानसभा चुनाव

भाजपा के विचारों और विजन से सहमति-असहमति अपनी जगह है, पर अपने बूते सरकार बनाने के लक्ष्य के साथ पूरे जम्मू-कश्मीर में पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ने की पहल सराहनीय है. यह काम बहुत पहले होना चाहिए था और राष्ट्रीय एकता की बात करनेवाली सभी पार्टियों को करना चाहिए था. जम्मू-कश्मीर में तीन चरण […]

भाजपा के विचारों और विजन से सहमति-असहमति अपनी जगह है, पर अपने बूते सरकार बनाने के लक्ष्य के साथ पूरे जम्मू-कश्मीर में पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ने की पहल सराहनीय है. यह काम बहुत पहले होना चाहिए था और राष्ट्रीय एकता की बात करनेवाली सभी पार्टियों को करना चाहिए था.

जम्मू-कश्मीर में तीन चरण के चुनाव हो चुके हैं और औसत मत प्रतिशत 70 के आस-पास रहा है. इस मत प्रतिशत का अलग-अलग लोग अलग-अलग अर्थ निकाल रहे हैं. पहला यह कि इस रिकॉर्ड मत प्रतिशत ने बताया है कि वहां अलगाववादियों की जगह सिमट गयी है. बायकाट के आह्वान के बाद भी बड़ी संख्या में वोट देकर लोग भारतीय लोकतंत्र में अपनी आस्था जता रहे हैं. दूसरा, वहां सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस व कांग्रेस के खिलाफ लोगों में गुस्सा है और वे इनके खिलाफ अपनी भावना का प्रदर्शन वोट देकर कर रहे हैं. तीसरा, भाजपा के प्रभावशाली प्रचार व जम्मू में उसके बढ़ते प्रभाव को देखते हुए कश्मीर के मतदाता सशंकित हैं. वे स्थानीय राजनीति में भाजपा का स्पेस न बढ़ने देने के लिए बड़ी संख्या में वोट देने बूथों तक जा रहे हैं.

वर्ष 2001 व 2002 जम्मू-कश्मीर में सबसे ज्यादा खून-खराबे के साल रहे, लेकिन इसके बाद से स्थितियां लगातार सुधरती गयीं. 1990 के दौरान राज्य में हुई आतंकी वारदातों में 461 नागरिक, 550 आतंकी और 155 जवानों की मौत हुई थी. ये आंकड़े 1996 तक लगातार बढ़ते रहे. 1996 में जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए थे. इसके बाद दो साल तक इन आंकड़ों में थोड़ी कमी रही, लेकिन फिर ग्राफ बढ़ने लगा. वर्ष 2000 में 847 नागरिक व 397 जवान शहीद हुए और 1,520 आतंकी मारे गये. वर्ष 2002 में मारे गये नागरिकों की संख्या 1,008 थी, इस साल 453 आतंकी मारे गये. इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव हुए, जिसमें पहली बार केंद्र में विपक्ष की भूमिका में रहनेवाली पार्टियों की सरकार बनी. ये चुनाव अलगाववादी हिंसा में झुलस रहे राज्य के लिए एक अलग अनुभव के तौर पर सामने आये. इसके बाद से लगातार हिंसा कम होती गयी. यह समझना जरूरी है कि ऐसा क्यों हुआ.

जम्मू-कश्मीर में 1951 में राज्य की संविधानसभा के लिए चुनाव हुआ. इस चुनाव में संविधानसभा की सभी 75 सीटें नेशनल कॉन्फ्रेंस ने जीतीं. लेकिन, संविधानसभा का काम पूरा होने से पहले ही शेख अब्दुल्ला को रियासत के प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त कर गिरफ्तार कर लिया गया. बख्शी गुलाम मोहम्मद को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया. बख्शी साहब के बारे में कहा जाता है कि यदि केंद्र सरकार कहती कि कश्मीर उत्तर में नहीं दक्षिण में है, तो बख्शी साहब यह सिद्ध करने में लग जाते कि कश्मीर दक्षिण में ही है. राज्य का संविधान लागू होने के बाद पहला चुनाव 1957 में हुआ था. इसमें बख्शी गुलाम मोहम्मद की नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 68 सीटें जीतीं. इसके बाद शुरू हुआ अनुच्छेद 370 व रियासत के संविधान के तहत मिली स्वायत्तता को कम करने का दौर. हमारे देश की आम जानकारी में यह बात नहीं है. लोग समझते हैं कि नेशनल कॉन्फ्रेंस व दूसरे दलों ने 370 को डायल्यूट करने के लिए कुछ किया ही नहीं. संघ व संघ परिवार के संगठनों के प्रोपेगैंडा ने इस बात को आमजन के बीच तथ्य के तौर पर स्थापित कर दिया. पहला चुनाव जीतने के बाद बख्शी सरकार ने सबसे पहले जम्मू-कश्मीर को सीएजी के दायरे में लाने का काम किया.1958 में अखिल भारतीय सेवाओं में जम्मू-कश्मीर को शामिल किया गया. 1959 में राज्य के संविधान में संशोधन कर चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय के दायरे में जम्मू-कश्मीर को भी शामिल कर दिया गया. 1962 में दूसरी बार विधानसभा चुनाव हुए, जिसमें नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 75 में से 70 सीटें जीतीं.

1964 में जीएम सादिक प्रधानमंत्री बने और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत इस राज्य को लाने का काम किया. राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति अनियंत्रित होने पर इस अनुच्छेद के जरिये राज्य की सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है. 1965 में सादिक साहब ने नेशनल कॉन्फ्रेंस को कांग्रेस में तब्दील कर दिया और फिर प्रधानमंत्री के पद को मुख्यमंत्री व सदर-ए-रियासत के पद को गवर्नर में तब्दील कर दिया.

1967 व 1972 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने जीत हासिल की. 1975 में शेख अब्दुल्ला कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बने. यहां यह जानना जरूरी है कि शेख की पार्टी का एक भी विधायक नहीं था. शेख 1977 तक मुख्यमंत्री रहे. 1977 में कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और राज्यपाल शासन लगा. इसके बाद हुए चुनाव में शेख की नेशनल कॉन्फ्रेंस 44 सीटें जीत कर सत्ता में आयी. 1982 में शेख की मृत्यु के बाद उनके पुत्र फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने. 1983 में हुए चुनावों में फिर नेशनल कॉन्फ्रेंस बहुमत के साथ सत्ता में आयी. यह पहली ऐसी सरकार थी जो केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की समर्थक नहीं थी. लेकिन, 1984 में इसे बर्खास्त कर कांग्रेस के समर्थन से गुल शाह को मुख्यमंत्री बना दिया गया. यह सरकार ज्यादा दिन न चल सकी और 1986 में इसे बर्खास्त कर राज्यपाल शासन लगा दिया गया. इसके बाद, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 249 के तहत जम्मू-कश्मीर को भी ला दिया गया. यह अनुच्छेद केंद्र सरकार को राज्य की सूची के विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार देता है.

1987 में चुनाव हुए, जिसमें फारूक और कांग्रेस मिल कर चुनाव लड़े और सरकार बनायी. यह चुनाव जम्मू-कश्मीर की सियासत में एक खतरनाक मोड़ की तरह आया. इस चुनाव में पहली बार पाकपरस्त पार्टियां मुसलिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) के बैनर तले चुनाव लड़ीं. एमयूएफ को चार सीटें मिलीं. इन चारों ने चुनावों में धांधली का आरोप लगाते हुए बाद में इस्तीफा दे दिया. अलगाववादी पाकपरस्त सैयद अली शाह गिलानी इसके नेता थे. गिलानी ने 2002 के चुनाव से पहले इस लेखक से कहा था कि हिंदुस्तान की सरकार ने 1987 के चुनाव में एमयूएफ के आठ उम्मीदवारों को हरवा कर वह स्पेस हमें दे दिया, जिसे तमाम कोशिशों के बावजूद पाकिस्तान हमें हासिल न करवा पाया था.

इस चुनाव से आम कश्मीरी का भरोसा चुनाव से उठ गया और उसे महसूस हुआ कि यहां विरोध की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है. इस गलती को दुरुस्त करने का काम 2002 के चुनावों में हुआ, जब शेख परिवार का हर सदस्य चुनाव हार गया. इससे पहले वहां के लोग कहा करते थे कि यहां जो दिखाई, सुनाई देता है, वह बैलेट बाक्स में जाकर बदल जाता है. हालांकि 2008 में फिर केंद्र में सत्तारूढ़ यूपीए ही विधानसभा चुनाव जीता. लेकिन, इस बार फिर से 2002 की स्थितियां दोहराये जाने के आसार दिख रहे हैं.

तो अब यह समझने में आसानी होगी कि जम्मू-कश्मीर में बढ़े हुए मतदान का अर्थ क्या-क्या हो सकता है. दूसरी बात यह समझी जा सकती है कि मिथ्या प्रचार से माहौल किस तरह विषाक्त और संशय का हो सकता है, जिसका फायदा अलगाववादियों को ही मिलता है. अनुच्छेद 370 इसका उदाहरण है. और, तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात- सिर्फ मुख्यधारा का रट्टा लगाने से कुछ नहीं होनेवाला, इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को कोशिश करनी होगी, जिस तरह से भाजपा इस समय कश्मीर में कर रही है. होना तो यह चाहिए था कि सभी राजनीतिक दल जम्मू-कश्मीर में अपनी सक्रियता दिखाते, गतिविधियां बढ़ाते और शेष भारत के साथ उसके मानसिक एकीकरण की प्रक्रिया चलाते.

भाजपा के विचारों और विजन से सहमति-असहमति अपनी जगह है, लेकिन अपने बूते सरकार बनाने के लक्ष्य के साथ पूरे जम्मू-कश्मीर में पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ने की पहल सराहनीय है. यह काम बहुत पहले होना चाहिए था और राष्ट्रीय एकता की बात करनेवाली सभी पार्टियों को करना चाहिए था. समस्या की जड़ में है जम्मू-कश्मीर को नेशनल कॉन्फ्रेंस के भरोसे छोड़ दिया जाना. वहां राजनीतिक विकल्प बनाने की दिशा में कोई रचनात्मक पहल ही नहीं हुई और जो कुछ हुईं भी, उनको सिरे नहीं चढ़ने दिया गया.

राजेंद्र तिवारी

कॉरपोरेट एडिटर

प्रभात खबर

rajendra.tiwari@prabhatkhabar.in

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