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लोकशक्ति के जरिये ही संभव है झारखंड का विकास

राधा भट्ट,प्रख्यात गांधीवादी कायकर्ता वर्तमान में जिस तरह के हालात लगभग साथ में गठित तीनों राज्यों- उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़- में हैं, उनको देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि जिस आकांक्षा और जिन सपनों के साथ इन तीनों राज्यों का निर्माण हुआ था, वे कहीं से भी पूरे हुए हैं. आज जब इन […]

राधा भट्ट,प्रख्यात गांधीवादी कायकर्ता

वर्तमान में जिस तरह के हालात लगभग साथ में गठित तीनों राज्यों- उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़- में हैं, उनको देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि जिस आकांक्षा और जिन सपनों के साथ इन तीनों राज्यों का निर्माण हुआ था, वे कहीं से भी पूरे हुए हैं. आज जब इन राज्यों में आप घूमेंगे तो ऐसा कहनेवाले लोग मिल जायेंगे कि आज जो हालात हैं, उनसे तो बेहतर स्थिति वह होती कि इन राज्यों को इनके मूल राज्यों के साथ ही रखा जाता. हालांकि इन राज्यों के बीच तुलना करने का कोई मतलब नहीं है, सिर्फ इस बिनाह पर कि इनका गठन एक साथ किया गया, क्योंकि तीनों राज्यों के हालात, भौगोलिक-सामाजिक परिस्थिति अलग-अलग है. तुलना का एक ही पैमाना हो सकता है कि कैसे इन तीनों राज्यों में विकास के नाम पर लूट मची हुई है, और जिस जनशक्ति की बदौलत, जिनके दबाव में इन राज्यों का निर्माण किया गया, वह जनशक्ति मूकदर्शक बन कर कॉरपोरेट के लूट को देखती रही, वह भी उनके विकास का हवाला देते हुए, सब कुछ सहने को मजबूर है.

झारखंड और छत्तीसगढ़ को तो इस विकास की दोहरी कीमत चुकानी पड़ रही है. ये दोनों राज्य खनिज संसाधनों से परिपूर्ण हैं, लेकिन यही खनिज जो उनके लिए संपदा होनी चाहिए थी, आज राज्य के निवासियों के लिए आफत बने हुए हैं. राज्य में खनिज संपदा है, इसलिए राज्य के गठन के बाद कई कॉरपोरेट इन राज्यों में आये कि वे इन खनिज संसाधनों का दोहन करेंगे और इससे राज्य की अर्थव्यवस्था बदलेगी, और राज्य का विकास होगा. जबकि इन्हीं कॉरपोरेट के लूटतंत्र से बचाने के लिए और आम जनता के हिमायती होने का दावा करते हुए नक्सली इन राज्यों में अपना पांव पसारते हैं. इस तरह से देखें तो इन राज्यों की आम जनता दोनों तरफ से पिस रही है.

जिस उत्तराखंड का निर्माण अपनी जवानी, अपना पानी का नारा देते हुए किया गया था, वहां आज न तो पानी सुरक्षित है और न ही जवानी का उपयोग राज्य में हो पा रहा है. आज राज्य में जिस तरह से विकास की सोच आगे बढ़ रही है, और जिस तरह की नीतियां अपनायी गयी हैं, उसका सिर्फ एक ही लक्ष्य नजर आ रहा है कि किस तरह से नदी का पानी चुरा लो. किसानों की जमीन ले लो. आज उत्तराखंड के जिन तराई क्षेत्रों में खेती की जमीन थी, वे सब जमीने उद्योग के नाम पर अधिग्रहित की जा रही हैं. किसान और बड़ी संख्या में सैन्यकर्मी उत्तराखंड के गांवों की पहचान रहे हैं. आज ये दोनों विवश दिखते हैं. लोगों का कहना है कि हमारा तो पूरा जिला बरबाद हो रहा है. उनका कहना है कि उद्योगों से जो कचरा निकलता है, वे सारे बिना परिस्कृत किये नदी में छोड़े जा रहे हैं. इसकी वजह से पानी पूरी तरह से प्रदूषित हो गया है. उद्योगों के रसायन नदी में छोड़े जा रहे हैं. इसकी वजह से पानी न पीने के लायक रह गया है और न ही खेती में उपयोग के लायक. इस समस्या को लेकर जब कुछ क्षेत्रों में ग्रामीणों ने आवाज उठायी, तो कई जगहों पर कंपनियों ने गहरा कु आं खोद कर उसमें पानी छोड़ दिया. दावा यह किया गया कि इससे नदियों को प्रदूषण से बचाया जा सकेगा. लेकिन इस पूरी प्रक्रिया ने भूगर्भ जल को काफी नुकसान पहुंचाया. आज उत्तराखंड में पानी कम हो गया है. जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा नहीं हो रही है. लोग मैदान की ओर भाग रहे हैं.

दावे के मुताबिक, अगर उत्तराखंड या झारखंड में विकास हुआ है, तो इन राज्यों में पलायन कम होना चाहिए. लेकिन सच्चई यही है कि पलायन की प्रक्रिया बढ़ी है. रोजगार की संभावनाएं कम हुई हैं. उत्तराखंड में पहाड़ की चोटियों तक पर अधिकार की कोशिश हो रही है. विकास के नाम पर ग्लेशियर को बांध कर पानी के दोहन की कोशिश हो रही है, और ऐसा लगता है विकास का विकृत स्वरूप पहाड़ की चोटियों तक अपनी जगह बना चुका है.

इन तीनों ही नये राज्यों में सरकार और उद्योगपतियों के साथ मिल कर विकास और प्रकृति के साथ साहचर्य की पूरी प्रक्रिया को दूषित कर दिया गया है. नीति-निर्माता प्रकृति और जीवन स्तर के अनुरूप नीतियां नहीं बना रहे हैं. प्राकृतिक परिवेश के मुताबिक विकास की पूरी अवधारणा न तो विकसित की गयी है और न ही उनको बदलने की कोई कोशिश हो रही है. आदिवासी क्षेत्रों में जल, जंगल, जमीन को लेकर सतत संघर्ष चल रहा है. जो आदिवासी आज तक इसी जल, जंगल, जमीन का उपयोग करते हुए न सिर्फ अपनी जीविकोपाजर्न करते थे, बल्कि उन पर अपना हक मानते हुए उनका संरक्षण भी करते थे, समय के साथ अपना अधिकार खोते जा रहे हैं. इसका प्रभाव समाज के सभी वर्गो पर पड़ा है. युवा रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं. महिलाओं को दिल्ली, मुंबई, जैसे महानगरों में घरेलू कामगार के रूप में काम करने के लिए पलायन करना पड़ रहा है. वे इन महानगरों में न सिर्फ आर्थिक उत्पीड़न की शिकार हो रही हैं, बल्कि उन्हें शारीरिक, मानसिक उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ रहा है. इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर शराबखोरी होती है और इसका सबसे बुरा प्रभाव महिलाओं पर होता है. न नदी उनकी, न जंगल उनका, न जमीन उनकी फिर किस तरह से इन क्षेत्रों का विकास होगा.

यूपीए-2 सरकार भूअधिग्रहण को लेकर कुछ सकारात्मक प्रयास करते दिखी थी. उम्मीद बंधी थी कि अब कम से कम खेती की जमीन, उपजाऊ जमीन के अधिग्रहण में भूस्वामियों और ग्रामसभा को पर्याप्त अधिकार दिये गये थे, उसका लाभ मिलेगा. लेकिन एनडीए की सरकार भूअधिग्रहण कानून में बदलाव करने पर विचार कर रही है. इस तरह के बदलाव का नकारात्मक असर होगा.

गांव के भोले-भाले लोग राजधानी में बैठ कर योजना बनानेवाले नीति नियंताओं के हाथों पिस रहे हैं. सरकार की योजनाएं ऊपर से आती हैं. विकास की योजना में विकेंद्रीकरण के अभाव के कारण ग्रामीणों की आवाज ऊपर तक नहीं पहुंच पाती. ग्रामीण भी इस योजना पर आंख मूंद कर भरोसा करता है. उसे लगता है कि सरकार ने योजना बनायी है इसलिए ठीक ही होगा. आजादी के बाद से ग्रामीण संयोजकता में धीरे-धीरे गिरावट आ रही है. लोगों को उनके अपने विकास के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता, बल्कि उन्हें सरकार से मांगने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित किया जाता है. आज लोकतंत्र ने गांव को जोड़ने के बजाय उसे बांट दिया है. हमने गांव को गांव नहीं रहने दिया, बल्कि पार्टी बंदी का अखाड़ा बना कर रख दिया है. एक ही गांव में अलग-अलग राष्ट्रीय, क्षेत्रीय दलों के पांव पसारने की वजह से गांव का लोकतंत्र गुटबाजी के मकड़जाल में फंस कर रह गया है. पहले गांव एक होकर अपने हित के लिए आवाज उठाता था और लोकशक्ति के निर्माण के जरिये उनकी बात ऊपर तक सुनी भी जाती थी. हम मॉडल विलेज की बात कर रहे हैं, लेकिन सिर्फ पैसे देने मात्र से मॉडल विलेज नहीं बन सकता. गांव में जरूरत सड़क की होगी और शहर में बैठ कर नीति का निर्माण करनेवाले कहेंगे फैक्ट्री ले लो. सबसे जरूरी है कि गांव की लोकशक्ति विकसित हो. ऐसा नहीं है कि लोकशक्ति विकसित नहीं की जा सकती. ऐसा हो सकता है, लेकिन अभी गांव परेशान तो हैं, पर कोई रास्ता दिखानेवाला, सबको साथ लेकर चलनेवाला जननेता नहीं दिखाई दे रहा है, जो कि लोकशक्ति को जाग्रत करके उसको अपने हित के लिए एकजुट कर सके.

झारखंड, छत्तीसगढ़, और उत्तराखंड जैसे राज्यों का जन्म ही लंबे सामाजिक, राजनीतिक आंदोलन के बाद हुआ है. लेकिन इन राज्यों में भी पूरी लोकशक्ति बिखरी हुई दिख रही है. उस शक्ति को टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया है. ऐसा इसलिए हुआ है, ताकि कोई समाज एकजुट होकर आवाज न उठा सके. आज झारखंड एक बार फिर से विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है. ऐसे में प्रत्येक मतदाता को सजगता दिखाते हुए प्रतिनिधियों से यह सवाल करना चाहिए कि वे उनके हित के लिए क्या काम करेंगे. कैसे गांव में विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी. और उस विकास की प्रक्रिया के निर्धारण में उनकी भूमिका क्या होगी? अगर इन सब सवालों के साथ गांव व नगर निकाय के मतदाता एकजुटता दिखाएं, तो आगे की राह निकल सकती है.

(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)

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