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हिंदुस्तानी रवैये पर सवाल

।। दिनेश ठाकुर ।।(रेनबैक्सी के पूर्व अधिकारी)रेनबैक्सी में अपने कार्यकाल के दौरान मुझे इस बात पर हैरानी हुई थी कि वहां ऊंचे अधिकारियों के कच्चे फैसले भी किस तरह बिना शंका किये या सवाल उठाये स्वीकार कर लिये जाते हैं. दो अमेरिकी व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में काम कर चुकने के बाद किसी भारतीय मालिक के नीचे […]

।। दिनेश ठाकुर ।।
(रेनबैक्सी के पूर्व अधिकारी)
रेनबैक्सी में अपने कार्यकाल के दौरान मुझे इस बात पर हैरानी हुई थी कि वहां ऊंचे अधिकारियों के कच्चे फैसले भी किस तरह बिना शंका किये या सवाल उठाये स्वीकार कर लिये जाते हैं. दो अमेरिकी व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में काम कर चुकने के बाद किसी भारतीय मालिक के नीचे यह मेरी पहली नौकरी थी. यहां सांस्कृतिक और तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में जब मैं इन अनुभवों पर विचार करता हूं तो यह बात उभर कर सामने आती है कि यह तरीका व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के लिए कैसे खतरे पैदा करता है.

ऊपर के अधिकारी का मान करना हमारी संस्कृति है. बड़ों की बात सुनना व मानना हमें बचपन से सिखाया जाता है. हम इस धारणा के साथ बड़े होते हैं कि हमारे संगठन में जो भी प्रबंधक विभागाधिकारी या व्यवसायाध्यक्ष हैं, वे दूसरों से ज्यादा जानते हैं. पदानुक्रम (हायरार्की) की हमारे यहां बड़ी महिमा है. अपने अफसर के फैसले या आदेश पर हमारे यहां सवाल नहीं उठाया जाता. वैसी हिम्मत दिखानेवालों को ‘गद्दार’ समझा जाता है.

रेनबैक्सी के दस्तावेजों और कंपनी द्वारा 2004 में सरकारी नियामकों के सामने प्रस्तुत जानकारी के तुलनात्मक अध्ययन से जान सका कि उस संगठन में संदेहास्पद व्यवहार कितने बड़े पैमाने पर चलता था.

अक्सर मैं अपने आपसे पूछा करता था कि चुस्त और ईमानदार लोग सिलसिलेवार धोखाधड़ी को आखिर सह कैसे लेते हैं? इस सवाल ने मुझे मिलग्रैम परीक्षण तक पहुंचाया, जो 1961 में अमेरिका के येल विवि के मनोविज्ञानी स्टैनली मिलग्रैम ने किया था.

इस परीक्षण का सारांश प्रस्तुत करते हुए उन्होंने 1971 में कहा था : ‘यह संभव है कि सहज भाव से अपनी नौकरी बजा रहे और किसी से कोई द्वेष भाव न रखनेवाले सामान्य आदमी भयंकर रूप से विनाशकारी प्रक्रियाओं को अंजाम देते मिल जायें. यही नहीं, अपने काम का भावी दुष्परिणाम पूरी तरह समझ में आ जाने पर भी, नैतिकता के मूलभूत मानकों से मेल न खानेवाला काम करने को कहे जाने पर अधिकारियों का प्रतिरोध करने की आंतरिक शक्ति बिरले लोगों में ही होती है.’

मेरी राय में, भले ही हम अपनी परंपराओं और मूल्यों का कितना भी मान क्यों न करते हों, इस बात को न भुलाना नितांत आवश्यक है कि नेक इरादे लेकर ‘गद्दार’ होना हमारा कर्तव्य है. यह सोचना सर्वथा उचित है कि हमारे प्रबंधक लोग सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान नहीं हैं. हमारे संगठन में निचले पदों पर काम कर रहे हमारे सहकर्मी कई बार किसी विषय में हमसे ज्यादा जानकार होते हैं. उन्हें ऊपर के अधिकारियों के निर्णय अथवा निर्देश पर शंका या सवाल उठाने को प्रोत्साहित किया जाना जरूरी है, भले ही यह स्वयं हमारे लिए असुविधाजनक और क्षोभकारी क्यों न हो.

उत्तरों की तलाश के दूसरे पहलुओं ने मुझे आत्मनिरीक्षण में प्रवृत्त किया. कैसा समाज बन गये हैं हम? इंडियन फार्मास्यूटिकल एलाएंस के महासचिव डीजी शाह ने हाल में एक लेख में इस बात पर हमारी सभ्यता को आड़े हाथों लिया था कि हम पानी, निजी स्वच्छता, खाद्य पदार्थ, दवा जैसी बुनियादी जरूरत की चीजों तक में भ्रष्टाचार सह लेते हैं.

क्यों हम घटिया प्रशासन, भ्रष्टाचार, अक्षमता और सरकारी खैरात को वास्तविकताएं मान कर स्वीकार करने लगे हैं? मेरा ख्याल है कि हम जिस तरह से अपना दैनिक जीवन जीते हैं, उसका इससे गहरा संबंध है. विस्तृत खोज के बाद भी ‘जुगाड़’ का सही समानार्थक शब्द मैं अंगरेजी में तलाश न सका.

मुझे लगता है कि ‘जुगाड़’ सिर्फ हमारे ही समाज में है. वैसे विकीपीडिया बतलाता है कि किसी समस्या का तुरंत रास्ता या वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत करनेवाले उपाय को ‘जुगाड़’ कहते हैं. मगर मेरे ख्याल से इस व्याख्या में दो बातें छूट गयी हैं. ‘जुगाड़’ में यह समझ शामिल है कि फौरन समस्या सुलझाना जरूरी है, इसलिए उत्पादन की गुणवत्ता को धता बताना क्षम्य है. दूसरी बात, हमारा सारा ध्यान इस क्षण जो काम बना दे, ऐसे उपाय पर केंद्रित होता है, अत: हम स्थायी समाधान की बात नहीं सोचते.

व्यापक रूप से फैली दूसरी मनोवृत्ति है ‘चलता है’. जिसे भारतीय जीवन का अनुभव न हो उसे इस मनोवृत्ति के स्वरूप को समझने में कठिनाई होती है. मगर हम भारत के निवासी अच्छी तरह जानते हैं कि यह क्या चीज है. हमने यह बात सहज ही मंजूर कर ली है कि अगर कोई चीज 80 प्रतिशत दुरुस्त है, 80 प्रतिशत मौकों पर 80 प्रतिशत काम दे जाती है तो वह स्वीकारणीय है.

‘जुगाड़’ वाले रवैये और ‘चलता है’ की मनोवृत्ति के नतीजे अब हमारे सामने हैं. हालिया घटनाएं हमसे पूछ रही हैं कि जो हुलिया तुम इसमें देख रहे हो वह तुम्हें भाता है? नहीं, मुझे तो हरगिज नहीं भाता.
(‘हिंदू’ से साभार/ अनुवाद : नारायण दत्त)

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