सूचना के अधिकार के दायरे में राष्ट्रीय दलों को लाने के केंद्रीय सूचना आयोग के निर्देश की अवहेलना के मामले में आयोग ने छह राष्ट्रीय दलों से सफाई मांगी है. आयोग ने पिछले वर्ष तीन जून को इन दलों को सार्वजनिक संस्था मानते हुए उन्हें इस अधिकार के तहत मांगी गयी सूचनाएं उपलब्ध कराने के लिए समुचित व्यवस्था करने का निर्देश दिया था, लेकिन 17 महीने बीत जाने के बाद भी पार्टियों ने इस संबंध में कोई पहल नहीं की है.
हालांकि, इस आदेश को खारिज करने के इरादे से तुरंत ही इस कानून में संशोधन का विधेयक लाया गया था, जिसे संसदीय समिति ने भी मंजूरी दे दी थी, लेकिन यह विधेयक अभी भी विचाराधीन है. संबद्ध पार्टियों का तर्क है कि दल न तो संवैधानिक संस्थाएं हैं और न ही उनका गठन संसद के कानून द्वारा हुआ है, इसलिए उन्हें सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत लाने का कोई औचित्य नहीं है.
लेकिन आयोग ने अपने आदेश में स्पष्ट रूप से इस तथ्य को रेखांकित किया था कि छह राष्ट्रीय दल- भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया- केंद्र सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त करते हैं, इसलिए वे कानून के मुताबिक, सार्वजनिक संस्था की श्रेणी में आते हैं. पार्टियों के बीच भ्रष्टाचार को लेकर तो आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं और सबका दावा है कि उनका आचरण व नीतियां अन्यों से अधिक पारदर्शी और बेहतर हैं.
लेकिन विडंबना यह है कि जब उन्हें सूचना के अधिकार के तहत लाया गया, तो वे इसके विरोध में तुरंत एक साथ हो गयीं. अगर उनके पास इस निर्देश के विरुद्ध ठोस तर्क हैं, तो उन्हें देश के सामने या अदालत में रखना चाहिए था. एक संवैधानिक संस्था के आदेश की अवहेलना किसी भी आधार पर उचित नहीं कही जा सकती है. आमदनी के लेखा-जोखा को लेकर भी पार्टियों पर सवाल हैं. उस पर उनके जवाब संतोषजनक नहीं हैं. राजनीतिक दल लोकतंत्र के मूलभूत तत्व तथा जनता की भावनाओं व आकांक्षाओं के प्रतिनिधि हैं. अगर उन्हें ही पारदर्शिता से परहेज है, तो फिर उनके नेतृत्व में चलनेवाली सरकारों और विभिन्न सदनों में बैठे उनके प्रतिनिधियों से क्या उम्मीद की जा सकती है?